मुंशी प्रेम चंद ने एक बार दो बैलों की कथा लिखी थी. वो पुराना ज़माना था. शायद 1935 में लिखी थी.
मैं आज 2015 में लिख रहा हूँ.
so called फर्जी किसानों का परिवार है हमारा. बाप हमारे सारी जिनगी फ़ौज में रहे. जवानी में कभी खेत में पैर न रखा. बुढ़ापे में जब रिटायर हुए और सठिया गए तो किसानी का शौक चर्राया. मरते दम तक न गाय दुहना सीख पाये न खुरपी चलाना. फिर भी कहाते किसान थे. पशु प्रेमी, कट्टर हिन्दू, आर्य समाजी, गो भक्त, ......सभी गुण थे उनमे जो एक ढोंगी हिन्दू में होने चाहिए. बड़ा सुखमय जीवन था हमारा. गाय भैंस थी. बाछी पड़िया होती तो उसे छुट्टा दूध पिला के मोटवाते ......पाड़ा या बछड़ा हो जाता तो उसे भूखा मार देते. माँ कसम पड़वा तो एक भी हमारे खूंटे पे साल भर का न हुआ. बेचारे सब मर गए. और पाड़ी बाछी एक न मरी पिछले 25 साल में. बछड़ों का भी यही हाल होता. ज़्यादातर मर जाते. एकाध बच जाता उसे हम बड़ी सफाई से 300 रु की भारी भरकम रकम में कसाई को बेच देते थे. यदि कोई guilt होता तो 3 बार जोर जोर से ॐ बोल के निकाल देते. सुखपूर्वक ज़िन्दगी बीत रही थी. तभी एक दिन सड़क पे पड़ा बांस हमने भीतर ले लिया.
न जाने कैसे हमरा परिवार रामदेउआ .....अरे वही बाबा राम देव के चक्कर में पड़ गया और उसने हमको समझा दिया कि ई holstein फ्रीजियन और जर्सी .....ई कोई गाय थोड़े न है. ई तो घोड़े की कोई नस्ल है. देसी गाय पालो. भैया हम उसके बहकावे में आ के ले आये एक ठो साहिवाल. पहली बार घर में गौ माता आई थी. उनको हुआ पुत्र रत्न. हमने भी पहली बार उसको पुत्र के समान ही पाला. आधा दूध दुहते आधा उसको पिलाते. वो भी पट्ठा मोटाने लगा पी पी के. घर भर का लाडला. पहले दिन से सोच लिया था कि इसको सांड बनाएंगे. इलाके में एक भी साहिवाल का सांड नहीं. क्षेत्र में गौ संवर्धन होगा.
गौ माता के थान में कुछ समस्या थी. खून आता था. भाई साहब स्वयं नामी homoeopath हैं. सब इलाज कर हार गए तो एक यादव जी को बेच दिए.
इस शर्त पे कि बछड़ा वापस चाहिए. पुत्र हमारे लिए था यादव जी के लिए नहीं. उस साले ने दूध तो छोड़ सूखा भूसा तक न दिया. 6 महीने बाद पहुंचा गया. भोलू जी की हड्डियां निकल आई थी. कोहराम मच गया. हाय हाय रे .....मार डाला पापी ने ......
खैर भैया .....फिर सेवा हुई भोलू जी की ......अब जा के शक्ल सुधरी है. पर असली समस्या भी अब आई है. भोलू जी भूल गए की वो एक सांड हैं. एकदम पुत्र की माफिक behave करने लगे हैं. हम लोग तो बाहर ज़्यादा रहते हैं. घर पे भाई साहब और बेटा वसु रहता है. वसु उन्हें देख के लिपट जाता है. अपने हाथ से रोटी खिलाता है. शहरी लोग अपने कुत्ते को walk पे ले जाते हैं , वसु भोलू को ले जाता है. सांड बछड़े आम तौर पे खूंखार मरखणे होते है पर भोलू एकदम गाय है. नज़दीक से निकल जाओ तो बुलाते है .......कहते हैं मुझे सहलाओ .......अरे रोटी तो खिलाओ ...... बोल नहीं पाते पर बिना बोले सब कह जाते हैं ...... बाकायदा बात करते हैं ...... उनकी आँखें बोलती हैं ....... प्रेम भाषा का कब मोहताज हुआ. प्रेम तो आँखों से झलकता है.
दो साल के हो गए हैं. अब उन्हेँ छोड़ने का समय आ रहा है. दाग के या कान काट के छोड़ देंगे.
अब तक तो सब बहुत आसान था. छुट्टा सांडों की कितनी दुर्दशा होती है हमारे देश में किसी से छुपा नहीं है. लोग दौड़ा दौड़ा के मारते हैं ......भाला घोप देते हैं ......गंडासा मार देते हैं ......खौलता पानी और तेज़ाब तक डाल देते हैं. ऊपर से कसाइयों का डर. रात के अंधेर में कब हांक ले जाएँ. समाज सिर्फ कहने को गो भक्त है. अपने खेत में घुसा सांड किसी को नहीं भाता ........
गाँव घर के सब लोग मना कर रहे हैं. छोड़ना मत. बहुत दुर्दशा होगी. जो प्रेम वो प्रदर्शित करता है और जो वात्सल्य जो ममता उसे देख उमड़ती है वही समस्या है. क्या करें ????? गो भक्ति, गो रक्षा और हिंदुत्व के चक्करों में पड़ के पाल तो लिया बेटे की तरह .......अब क्या करें ????? खूंटे पे बाँध के खिलाएं तो कम से कम 6000 रु महीने का खर्च. सांड बना के छोड़ दें तो रोज़ाना पिट के मार खा के लहू लुहान हो के घर आएगा. कभी कल्पना कीजियेगा कि आपका बेटा पिट के लहूलुहान हो तेज़ाब से जला घर आये ........ पहले दिन से ही भूखा मार के रखा होता, जैसे आज तक रखते आये थे तो ये दिन न देखना पड़ता. कब का मर खप गया होता या कोई कसाई ले गया होता.
मित्रों इस देश में ऐसे लाखों नहीं करोडो भोलू हैं ? हमारी एक गाय ने अभी दो महीना पहले बछिया दी है. एक दूसरी गाभिन है. फिर बछड़ा हो गया तो ?
कैसे पालूं ? वैसे ही जैसे आज तक पालते आये थे ????? कसाई विधि से ?????????? या बेटे की तरह .....जैसे भोलू को पाला......
एक अकेले भोलू को तो पाल ही लेंगे जैसे तैसे कर के. एक और आ गया तो ????????
अजित सिंह (उदयन स्कूल के संस्थापक )