शनिवार, 22 नवंबर 2014

गौ वंश की प्रजनन क्षमता में सुधार

यह सर्व विदित है कि भारतीय गौ वंश की प्रजनन क्षमता न्यूनतम है निम्न प्रजनन क्षमता में वृद्धि के लिए राष्ट्रीय डेरी अनुसंधान संस्थान करनाल द्वारा ब्यंाने के दो माह बाद गर्भित करवाने हेतु जांची गयी नव विकसित तकनीक मदकाल समक्रमण विधि (ओवसिंच प्रोटोकाॅल) को कृषकों के द्वार तक पहंुचाने की आवश्यकता है। इस तकनीक के अन्तर्गत ब्यंाने के 55-60 दिन के दौरान प्रथम दिन जी.एन.आर.एच.-रिसेप्टाल 2.5 मिली.,8 वे दिन पी.जी.एफ.- ल्यूटेलाइज- 5.0 मिली. एवं 10 वे दिन वापिस जी.एन.आर.एच.-रिसेप्टाल 2.5 मिली.,इंजेक्शन लगाया जाता है। इसके बाद 12 एवं 24 घण्टे पश्चात् 2 बार प्राकृतिक या कृत्रिम गर्भाधान विधि से गर्भित कराया जाता है। इस तकनीक का किसी भी प्रकार का साइड़ इफेक्ट भी नहीं पाया गया है। स्वास्थ्य रक्षा के अन्तर्गत फरवरी, जून व अक्टूबर माह में पेट में कीड़े मारने की दवा दिया जाना, समय-समय पर रोग निरोधक टीके लगवाना आदि की व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए।
गौ आधरित जैविक खेती के अन्तर्गत कम लागत की प्र्यावरण मित्र एवं स्वावलम्बी कृषि पद्धति को अपनाने की है। बिना गौ वंश के टिकाउ कृषि कल्पना ही सम्भव नहीं है। प्राचीन काल से ही यह कहा जाता रहा है कि ‘‘गौमये वसते लक्ष्मी पवित्रा सर्वमंगला‘‘ अर्थात् गोबर परम पवित्र सर्व मंगलमयी लक्ष्मी जी का निवास है। इसका अर्थ हमें यह समझना चाहिये कि जो कृषक, कृषि में गोबर/गोमूत्र का उपयोग करेगे उनके यहंा लक्ष्मी जी का वास रहेगा। यह बात सत्य भी साबित हो रही है। जब से हमारे कृषकों ने बोबर गोमूत्र का महत्व भूलकर रसायनिक कृषि को अपनानया है, तबसे हमारे कृषको के यहंा से लक्ष्मी जी रूठ गयरी है। टिकाउ कृषि यंत्र के विकास मकं गौवंश अत्यन्त महत्वपूर्ण घटक है।
जीवांश खाद भूमि की भौतिक रासायानिक एवं जैविक संरचना सुधारते हैं। भूमि जल धारण क्षमता एवं वायु संचार बढ़ाते हैं। गोबर गौ मूत्र के उपयोग से फसलों के वनस्पति अवशेष, चारा इत्यादि को जल्दी विघटित कर उच्च गुणवक्ता की कम्पोस्ट खाद बनायी जाती है। यही नहीं कृषक परिवार को धुआं रहित ईधन उपलब्ध करवाने हेतु घर-घर में गोबर गैस प्लंाट स्थापित करवाये जाने चाहिये।
पशुपालन व्यवसाय में 80 प्रतिशत योगदान पशु प्रबंधन का होता है। अतः पशु प्रबंधन की वैज्ञानिक तकनीकियों जैसेः
-ब्याने के दो माह पूर्व से ही अतिरिक्त दाना खिलाना
-ब्याने के दो माह बाद ग्याभिन करवाना
-स्ंातुलित पशु आहार एवं हरे चारे का उपयोग करना
-नमक एवं खनिज लवणों को नियमित रूप से खिलाना एवं
-पेट के कीड़े मारने की दवा नियमित अन्तराल पर देना आदि को अपनाकर दुधारू पशुओं का एक वर्ष में ही 30 से 50 प्रतिशत तक दूध उत्पादन बढ़ाया जा सकता है तथा दुधारू गौ वंश से उनकी उत्पादक क्षमता का पूरा दोहन किया जा सकता है। उपरोक्त सुविधाऐं कृषक के द्वार पर ही उपलब्ध करवाने की आवश्यकता है।
पशु प्रबंधन की समस्त तकनीकियों का व्यवहारिक प्रदर्शन करने एवं तकनीकी आदानों को कृषकों के द्वार तक पंहुचाने में कृषि विज्ञान केन्द्रों पर कार्यरत पशु प्रंबधन वैज्ञानिक कारगर कार्य कर रहे है। कोटा संम्भाग में उक्त तकनीकियों के प्रर्दशन एवं प्रसार हेतु कृषि विज्ञान केन्द्र कोटा पर व्यवहारिक प्रदर्शन की सुविधाऐं विकसित करने हेतु भारतीय नस्ल की गीर एवं साहीवाल नस्ल की गायों की डेरी इकाई, गोबर एवं गौ मूत्र से जैविक कीट नाशक उत्पादन ईकाइ गोबर गैस एवं मिनिरल मिक्चर आदि के उपत्पादन की इकाईयंा स्थापित करवाने की आवश्यकता है।
बढ़ती आय, शहरीकरण, खान-पान की बदलती आदतो, जनसंख्या मंे वृद्धि तथा निर्यात के अवसर जैसे विभिन्न कारणों से दूध की मांग बढ़ रही है। योजना आयोग के अनुमान और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में लगातार उच्च विकास में सुधार के आधार पर मिले आंकडो से यह अनुमान है कि वर्ष 2016 -17 में दूध की मांग करीब 155 मिलियन टन होगी और 2021-22 तक 200 मिलियन टन से अधिक होगी। इस बढ़ती मांग को पूर्ण करने के लिये अगले 15 वर्षो में वार्षिक वृद्धि दर 4 प्रतिशत से अधिक बनाये रखने की आवश्यकता हैं, इसलिये यह जरूरी है कि वर्तमान देशी गायों की प्रजनन क्षमता एवं आहार प्रबंधन पर ध्यान केन्द्रित कर उत्पादकता बढ़ाने के लिये पशु प्रबंधन की वैज्ञानिक तकनीकियों को सभी पशुपालको तक पहुंचाने की आवश्यकता है।
पशु प्रबंधन की तकनीकियों एवं संसाधनों को कृषक के द्वार पर ही उपलब्ध करवाने हेतु राजस्थान में अलग से कोई पशुपालन प्रसार अधिकारी/कार्यकर्ता नहीं है। समाधान स्वरूप पशुपालन विभाग में कार्यरत पशु चित्किसा अधिकारियों को सप्ताह में दो बार दोपहर के बाद निकटतस्थ के दो अलग-अलग ग्रामों में पशुपालक क्लबों की मासिक बैठकों में भाग लेने हेतु निदेर्शित कर सदस्य पशु पालकों को पशु पोषण पशु प्रजनन, पशु आवास एवं स्वाथ्य रक्षा प्रबंधन की जानकारियां एवं सेवाऐं निःशुल्क उपलब्ध करवायी जा सकती है। इस प्रकार से एक पशु चित्किसा अधिकारी निकट के 8 गंावों में पशु पालन प्रसार अधिकारी के रूप में सेवाऐं देकर ग्रामीणों को लाभान्वित कर अल्प समय में ही दूध उत्पादन में वृद्धि करवा सकता हैं। राजस्थान में लगभग दो हजार पशु चित्किसा अधिकारी हैं जो प्रति वर्ष 16000 गांव के आठ लाख पशु पालकों का लाभ पंहुचा सकते हैं।
राज्य सरकार द्वारा प्शुओं के स्वास्थ्य रक्षार्थ सभी प्रकार की दवाऐं एवं दुधारू पशु की उत्पादकता बढ़ाने एंव प्रजनन क्षमता में सुधार लाने हेतु मिनिरल मिक्चर निःशुल्क उपलब्ध करवाया जा रहा हैं। मिनिरल मिक्चर के विषय में जन चर्चा रहती है कि सरकारी वस्तु कम गुणवक्ता की होती है। यहंा सुझाव देना चाहूगंा कि पशु चित्किसालयों द्वारा उपलब्ध करवाये जाने वाले मिनिरल मिक्चर की हर चार माह में प्रयोगशालाओं में जांच करवाये जाने की व्यवस्था विकसित करवायी जावे। सम्भव हो सके तो सरकारी स्तर पर ही सम्भाग वार मिनिरल मिक्चर तैयार करवाया जावे क्योंकि मिनिरल मिक्चर कम खर्च का बीमा है कृषि विज्ञान केन्द्र पर भी क्षेत्रीय आवश्यकतानुसार मिनिरल मिक्चर तैयार कराने की इकाईयां स्थापित करवायी जा सके।
पीक दूध उत्पादन का सम्बन्ध पूरे ब्यांत काल के उत्पादन से जुड़ा हुआ हैं इसलिए पीक दूध उत्पादन बढ़ाने हेतु ग्याभिन गायों को ब्यंाने के दो माह पूर्व से 2-4 किलो दाना/बाटा खिलाने से ब्यंाने के बाद गाय अपनी पूर्ण क्षमता अनुसार प्रथम माह में अधिकतम दूध उत्पादित कर 10 से 12 लीटर दूध प्रति दिन देने लग जाती है। लेकिन जानकारी एवं अर्थ आभाव के कारण अधिकांश पशु पालक ग्याभिन काल में गायों को किसी भी प्रकार का अतिरिक्त दाना नहीं खिला पाते है। अतः इस तकनीक को पशु पालकों में जागृति लाने हेतु राज्य में प्रसुता महिलाओं को दिये जा रहे पोषक खाद्यान्न की तर्ज पर ही देशी गायों का दूध उत्पादन बढ़ाने हेतु प्रसुता देशी गायों को ब्याने के दो माह पूर्व 1.5 क्विंटल अतिरिक्त खाद्यान्न वी.पी.एल. योजना की तर्ज पर प्रति ग्याभिन गाय के आधार पर अनुदान पर दिया जाना प्रस्तावित करवाकर देशी गायों से वंाछित उत्पादन दिया जा सकता है।
कृषकों को बढ़ते ईंधन के झझंट से बचाने हेतु गोबर गैस प्लंाट की स्थापना हेतु ड्रिप इरीगेशन/सोलर सेट आदि की तरह ही अनुदान की सीमा 75-90 प्रतिशत तक बढ़ा कर ईंधन संकट से बचाया जा सकता है।
एक व्यस्क गौ वंश प्रतिदिन 15 किलो गोबर देते हुए एक वर्ष में 5.4 टन उत्पादित करता है जिससे 1.8 टन जैविक खाद या 700 किलो सूखी लकड़ी(सात वृक्षों) के बराबर ईंधन योग्य कंडे तैयार होते हैं। गांव-गांव में कृषकों रोजगार उपलब्ध करवाने एवं जैविक खेती का प्रचलन बढ़ने हेतु गौ मूत्र कीट नियंत्रक एवं पंचगव्यों से पौध संवर्धक बनाने के कुटीर उद्योग प्रारम्भ करवाने एवं उत्पादित माल को बेचने हेतु राज्य स्तर पर प्रयास करने की आवश्यकता है।
अतः कह सकते है पशुपालन ही एक ऐसा व्यवसाय है जो कृषको के फालतू समय का सदुपयोग करवाते हुऐ वर्ष पर्यन्त रोजगार एवं नियमित आमदनी उपलब्ध करवा कर किसानों को आर्थिक रूप से सम्पन्न बना सकता है। पशुपालन व्यवसाय कृषक परिजनो को पशु प्रोटीन युक्त दूध उपलब्ध करवा कर कुपोषित होने से बचाता है, वहीं भूमि की उर्वरकता को बनाऐ रखने के लिए आवश्यक गोबर रूपी अमुल्य खाद भी उपलब्ध करवाता है। पशु पालक उक्त तकनीकियों को अपना कर डेयरी व्यवसाय में वांछित लाभ लेते हुए दूध उत्पादन बड़ाकर अग्रणी श्रेणी में ला सकते हैं। अधिक जानकारी के लिए प्रत्येक जिले में स्थित कृषि विज्ञान केन्द्रों पर सम्पर्क कर सकते हैं।

गौसंवर्धन एवं कृषि

गौसंवर्धन एवं कृषि
वैदिक काल में समद्ध खेती का मुख्य कारण कृषि का गौ आधारित होना था। प्रत्येक घर में गोपालन एवं पंचगव्य आधारित कृषि होती थी, तब हम विश्व गुरू के स्थान पर थे। भारतीय मनीषियों ने संपूर्ण गौवंश को मानव के अस्तित्व, रक्षण, पोषण, विकास एवं संवध्र्रन के लिये आवश्यक समझा और ऐसी व्यवस्थाऐं विकसित की थी जिसमें जन मानस को विशिष्ट शक्ति बल तथा सात्विक वृद्धि प्रदान करने हेतु गौ दुग्ध, खेती के पोषण हेतु गोबर-गौमूत्र युक्त खाद, कृषि कार्याे एवं भार वहन हेतु बैल तथा ग्रामद्योग के अंतर्गत पंचगव्यों का घर-घर में उत्पादन किया जाता था। प्राचीन काल से ही गोपालन भारतीय जीवन शैली व अंर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग रहा है।
वर्तमान में मनुष्य को अनेकों समस्याओं जैसे मानव स्वास्थ्य एवं पर्यावरण असंतुलन, जल का दूषित होना, कृषि भूमि का बंजर होना आदि से जूझना पड़ रहा हैं। इन विपरित परिस्थतियों में हमें अपने आप को स्वस्थ एवं आर्थिक रूप से सम्पन्न रखना है तो दैनिक जीवन में गौ-दूग्ध एवं पंचगव्य उत्पादों का तथा कृषि मंे गौबर एवं गौमूत्र से उत्पादित कीटनाशकों एवं जैविक खादों का उपयोग बढ़ाना होगा।
भारत वर्ष ही एक एैसा राष्ट्र है जिसमें दूध उत्पादन लगातार बढ़ रहा है। आज हमारा देश संसार में सर्वाधिक 133 मिलीयन टन दूध उत्पादन करने वाला देश हैं। भारत में प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता 290 ग्राम है जो संसार के औसत उपलब्धता से ज्यादा हैं। पिछले 5 वर्षो मंे भारत का दूध उत्पादन 25 मिलीयन टन बढ़ा, इसकी तुलना में अमेरिका में 6.6 मिलीयन टन, च.ीन में 5.4 मिलीयन टन एवं न्यूजीलैन्ड में 2.7 मिलीयन टन ही बढ़ा। इससे सिद्ध होता है कि हमारा पशुपालक एवं पशुधन किसी से कम नहीं है।
यद्यपि हमारे पास 304 मिलीयन का विशाल दुधारू पशुधन है, जिसमें 16.60 करोड़ भारतीय नस्लकीदेशी व 3.3 करोड़ संकर नस्ल की गाये है तथा 10.53 करोड़ भैसे है, जिनसे 7 करोड़ पशुपालकों द्वारा प्रतिदिन 33 करो़ड लीटर दूध का उत्पादन किया जाता है, जो अपने आप में एक कीर्तिमान हैं। इसमें भैसे 54 प्रतिशत, संकर गाय से 24 प्रतिशत एवं देशी गाय से 22 प्रतिशत दूध प्राप्त होता है।
समय समय पर निति निर्धारकों एवं चिंतको द्वारा ऐसे विचार व्यक्त किये जाते रहे है कि भारत में दूध उत्पादन में ब़ढ़ोतरी करने हेतु संकर गायों की संख्या बढ़ानी होगी। यहां यह नोट करने की आवश्यकता है कि पिछले दशक में संकर गायों की उत्पादकता में वृद्धि दर भैस यहां तक कि देशी गायों सें भी कम पायी गयी हैं। इससे सिद्ध होता है कि भारतीय नस्ल की गायांे की उत्पादक क्षमता को कम नहीं आंकना चाहिए, तथापि देशी गायों की उत्पादकता को उत्तरोतर बढ़ाने के उपाय करने चाहिए। भारतीय गौवंश गुणवत्ता के आधार पर दुनिया में सर्वश्रेष्ठ और सभी विदेशी नस्लों में श्रेयस्कर है। भारत में अधिक दूध देने वाली नस्लें भी है गुजरात राज्य की गीर नस्ल की गाय ने ब्राजील में आयोजित विश्व प्रतियोगिता में 64 लीटर दूध देकर विश्व कीर्तिमान स्थापित किया है। भारतीय नस्लों की गायों का दूध अधिक गुणकारी है जिसमें प्रोटीन ।.2 किस्म की होती है, जिसकी प्रकृति धमनियों में रक्त जमाव विरोधी, कैसंर विरोधी एवं मधुमेह विरोधी होती है, इसलिए देशी गाय का दूध दौहरा लाभदायक है वहीं भारतीय गाय के दूध में बच्चों के दिमाग की वृद्धि करने हेतु आवश्यक तत्व सेरेब्रोसाईड, कन्जूगेटेड लिनोलिक ऐसिड एवं ओमेगा थ्री फेटी ऐसिड आवश्यक अनुपात में पाया जाता है।
भारतीय गौवंश में 34 निर्धारित एवं 30 स्थानीय नस्लें अपने-अपने प्रजनन क्षैत्रों में बखूबी योगदान दे रही है। साहीवाल, गीर, रेडसिन्धी, राठी और थारपारकर नस्ल की गायें प्रजनन एवं उत्पादन दोनों में श्रेष्ठ है। उचित प्रबन्धन से इन नस्लों की गायें 12-18 लीटर दूध प्रतिदिन देते हुए दूध की जरूरत को पूरा, ग्रामीणों को वर्षपर्यन्त रोजगार एवं भूमि को उपजाऊ बनाऐ रखने के लिए जैविक खाद उपलब्ध करवा सकती है।
हमारे पास देशी गौवंश में 4.80 करोड़ दुधारू गायों सहित 8.92 करोड़ व्यस्क मादा देशी गौवंश है, जिनकी उत्पादकता बढ़ाकर, दो ब्यांत का अन्तराल कम कर दूध एवं दूध उत्पादों की बढ़ती मांगो का पूरा किया जा सकता है । लेकिन हमारे पशुपालकों द्वारा पुराने प्रचलित सिद्धातों जैसे केवल भूसा या कड़वी ही खिलाना, घरों में उपलब्ध एक या दो खाद्यान्न वह भी अल्प मात्रा में दूध देते समय अपने सुविधा अनुसार खिलाना, पशु प्रबंधन जैसे-
ब्याने के पूर्व नहीं खिलाना, ब्याने के 2 माह बाद ग्याभिन नहीं करवाना, नियमित रूप से नमक एवं खनिज मिश्रण नहीं देना, बिमार पशुओं का उचित उपचार नहीं करवाना आदि को अपनाया जाता है, जिनकेे परिणामस्वरूप पीक दूध उत्पादन का कम होना या एक ब्यांत में कम दिनों तक कम दूध का देना एवं दो ब्यंात का अन्तराल बढ जाने से कम दूध उत्पादन होने की बजह से गोपालन व्यवसाय अलाभकारी सिद्ध होता जा रहा है, जबकि देशी गायों की क्षमता प्रतिदिन 10 से 12 लीटर दूध देते हुये 1 ब्यात में 2000 से 2500 लीटर दूध देने एवं प्रतिवर्ष ब्याने की हैं। इस क्षमता का दौहन करने की आवश्यकता है।
अनुसंधान परिणाम दर्शाते है कि संतुलित आहार से दूध उत्पादन बढ़ता है, उत्पादन लागत घटती हैं तथा मीथेन गैस उत्सर्जन में कमी आती है। दुधारू पशुओ को संतुलित आहार खिलाये बिना केवल अनुवांशिक क्षमता बढ़ा कर बेहतर दूध प्राप्त करना संभव नहीं है। आमतौर पर दूधारू पशुओं को स्थानीय स्तर पर उपलब्ध पशु खाद्य पदार्थ, घास एवं सूखे चारे तथा फसल अवशेष ही खिलाये जाते हैं, जिनके फलस्वरूप उनका आहार प्रायः असंतुलित रहता है और उसमें प्रोटीन, ऊजो, खनिज तत्वों तथा विटामिनों की मात्रा कम या ज्यादा हो जाती हैं। असंतुलित आहार न केवल पशुओं के स्वास्थ्य एवं उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है अपितु दूग्ध उत्पादन में होने वाली आय को भी प्रभावित करता है, क्योकि आहार खर्च में दुग्ध उत्पादान की कुल लागत का 70 प्रतिशत हिस्सा होता हैं। पशुओं की प्रजनन एवं दूध उत्पादन क्षमता में सुधार लाने, दो ब्यात का अन्तराल कम करने तथा दूध उत्पादकोें की शुद्ध आय मंे बढ़ोतरी हेतु दूध उत्पादकों को संतुलित आहार के बारे में शिक्षित करना अत्यन्त आवश्यक है।
हरा चारा पशुओं के लिये पोषक तत्वों का एक किफायती स्त्रोत है परन्तु इसकी उपलब्धता सीमित है। चारे की खेती के लिये सीमित भूमि के कारण, चारा फसलों एवं आम चारागाह भूमि से चारे की उत्पादकता में सुधार पर ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता है साथ ही अतिरिक्त उत्पादित हरे चारे के संरक्षण के तरीकों को प्रदर्शित करना होगा, जिससे कि हरे चारे की कमी के समय इनकी उपलब्धता बढ़ाई जा सके।
विभिन्न प्रयोगों में पाया गया है कि खनिज तत्वों की कमी वाले आहारों का निरन्तर उपयोग करते रहने से पशु शरीर में उपस्थित खनिजों के क्रियात्मक संयोगों एवं विशिष्ठ सांद्रताओं में परिवर्तन उत्पन्न हो जाते है कई प्रकार की व्याधिया उत्पन्नहो जाती है। पशुओं को दूध देने, पुनः ग्याभिन होने एवं ब्याने के दौरान प्रोटीन व ऊर्जा की ज्यादा आवश्यकता पड़ने के कारण खनिज तत्वों एवं विटामिनों की आवश्यकता बढ़ जाती है। अतः पशुओं की सामान्य वृद्धि दर, प्रजनन क्षमता एवं उत्पादन के स्तर को बनाये रखने के लिए सभी खनिज तत्व प्रर्याप्त मात्रा में उपलब्ध करवाना आवश्यक है। इन दिनों अधिकांश गौपालकों द्वारा महसूस किया जाने लगा है कि गायों को पर्याप्त मात्रा में दाना/बाटा/चारा देने के उपरान्त भी दूध उत्पादन में कमी, प्रजनन क्षमता में कमी, अधिक उम्र में परिपक्व होना, समय पर ग्याबिन नहीं होना एवं बार-बार गर्भ गिर जाना आम बात हो गई है।
दूध के साथ निकलने वाले खनिजों की पूर्ति करने एवं पशु शरीर की सामान्य वृ(ि व उत्पादन के स्तर को बनाये रखने, परासरण दाब एवं तापमान को नियंत्रित रखने के लिए नियमित रूप से पशु की इच्छा अनुसार या पच्चीस से 30 ग्राम साधारण नमक एवं 40-50 ग्राम कम्पलीट खनिज मिश्रण अवश्य ही दिया जाना चाहिये।

गो सरंक्षण

अब तक गौरक्षा हेतु धर्मनीति और राजनीति स्तर पर बडे प्रयास हुए लेकिन पूर्ण सफलता नहीं मिली अर्थनीति पर जोर देकर ही गौमाता को बचा सकते है क्योकि सारी दुनियाॅ इस समय धन के पीछे भाग रही हैं अगर सभी गौभक्त गोबर गौमूत्र का उपयोग मानव उपयोगी औषधी, सौन्दर्य प्रसाधन कृषि औषधि, कृषिखाद, बिजली उत्पादन गैस उत्पादन में करने लगे तो गौमूत्र व गोबर 10 रूपये लीटर/ किलो बेचा जा सकता है ऐसे में एक गौमाता 200 रू. प्रतिदिन गौपालक को देती है 10 गौमाता रखने वाले को दूध के अलावा 7 लाख रूपये प्रतिवर्ष लाभ होगा। ऐसी स्थिति में कोई गौमाता को काटने के लिए कत्ल खाने नहीं भेजेगा। हम सभी गौभक्त संकल्प करें की पंच-गव्य से बनी सामाग्री जैसे शेम्पू, जेल, तेल, कृषि औषधि, क्रीम, सीरप, गोली, अगरबत्ती, साबून इत्यादि का ही उपयोग करे।
इस समय हम लोगों की जो दुर्दशा हो रही है, वह इसी पाप का प्रायश्चित हो रहा है जगत का सारा व्यवहार इसी नियम पर चलता है कि जहाँ जिस चीज की मांग होगी, वहीँ उसकी पूर्ति भी होगी, हम लोग भैंस का दूध अधिक पसंद करते हैं और यह नहीं जानते कि भैंस गौ का काल है गांधी जी चिल्ला – चिल्ला के लोगों से यह कह चुके हैं कि केवल गौ के दूध का सेवन करो यदि हम लोग हिन्दू होकर गौ का इतना आदर और उसके लिए इतना त्याग न कर सकें कि अधिक दाम देकर भी गौ का दूध ही लें और भैंस के दूध के स्वाद की इच्छा न करें तो हम लोग गौ को गोमाता कहकर पूजने के अधिकारी नहीं हैं, इसमें स्वाद की इच्छा का त्याग भी नहीं है वैज्ञानिक रीति से यह बात साबित हो चुकी है कि गाय का दूध भैंस से कहीं ज्यादा उत्तम है जब तक कोई चीज कीमती नहीं होती तब तक उसकी बर्बादी नहीं रोकी जा सकती है गोओं को हम बचा सकते हैं, यदि हम गाय के ही दूध का सेवन और गाय के दूध से बने पदार्थों का सेवन करें तो अवश्य ही गाय माता की रक्षा होगी

क्या कहता है विज्ञान

1.जर्सी नस्ल की गाय का दूध पीने से 30 प्रतिशत कैंेसर बढने की संभावना हैं- नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट आॅफ अमेरिका
2.गाय अपने सींग के माध्यम से काॅस्मिक पाॅवर ग्रहण करती हैं- रूडल स्टेनर,जर्मन वैज्ञाानिक
3.गोबर की खाद की जगह रासायनिक खाद का उपयोग करने के कारण महिलाओं का दूध दिन प्रतिदिन विषैला होता जा रहा हैं- डाॅ. विजयलक्ष्मी सेन्टर फाॅर इण्डियन नोलिज सिस्टम
4.गौमूत्र के उपयोग से हदय रोग दूर होता है तथा पेशाब खुलकर होता है कुछ दिन तक गौमूत्र सेवन से धमनियों में रक्त का दबाव स्वाभाविक होने लगता हैं, गौमूत्र सेवन से भूख बढती है, यह पुराने चर्म रोग की उत्तम औषधि है- डाॅ. काफोड हैमिल्टन, ब्रिटेन
5.गौमूत्र रक्त में बहने वाले दूषित कीटाणुओं का नाश करता है- डाॅ.सिमर्स, ब्रिटेन
6.विश्व में केवल गौमाता ही ऐसा दिव्य प्राणी है जो अपनी निश्वास में आॅक्सीजन छोडती हैं- कृषि वैज्ञानिक डाॅ. जूलिशस एवं डाॅ. बुक जर्मन
7.शहरों से निकलने वाले कचरे पर गोबर के घोले को डालने से दुर्घन्ध पैदा नहीं होती है व कचरा खाद के रूप में परिवर्तित हो जाता हैं- डाॅ.कान्ति सेन सर्राफ मुम्बई
8.गौ दूध में विद्यमान सेरिब्रासाइय मस्तिक और स्मरण शक्ति के विकास में सहायक होती हैं साथ ही एम.डी.जी.आई. प्रोटीन के कारण रक्तर्कोँणकाओं में कैंसर प्रवेश नहीं कर सकता हैं- प्रो. रानाल्ड गौ रायटे कारनेल विश्व विद्यालय
9.समस्त दुधारू प्राणियों में गाय ही एक ऐसा प्राणी हे जिसकी बडी आंत 180 फीट लम्बी होती है इसकी विशेषता यह है कि जो चारा ग्रहण करती है उससे दुग्ध में केरोटीन नामक पदार्थ बनता है यह मानव शरीर में पॅंहूचकर विटामीन ए तैयार करता है तो नेत्र त्योति के लिए आवश्यक है।
10.गौमाता के गोबर में हैजे के कीटाणुओं को समाप्त करने की अद्भूत क्षमता होती है- प्रसिद्ध डाॅ. किंग मद्रास
11.जिन घरों में गौमाता के गोबर से लिपाई-पुताई होती है वह घर रेडियों विकिरण से सुरक्षित रहते है- प्रसिद्ध वैज्ञानिक शिरोवीच, रूस

जिस गोमाता के मात्र स्मरण करने से सम्पूर्ण पापों का नाश हो जाता है

जिस गोमाता के मात्र स्मरण करने से सम्पूर्ण पापों का नाश हो जाता है

कृषि प्रधान देश भारत में आज भी अधिकांश खेती बैलों द्वारा ही की जाती है, इसलिए बैलों को कर्म व कर्त्तव्य का प्रथम गुरु माना जा सकता है। आर्यावर्त सदा से शाकाहारी राष्ट्र रहा है। और सम्पूर्ण शाकाहार खाद्यान्न बैलों के पुरुषार्थ से ही उत्पन्न होता रहा है, इसलिए बैलों को पालक होने के कारण पिता भी कहा गया है। गाय एक तरफ जहाँ इन पुरुषार्थी बैलों को जन्म देती है, दूसरी तरफ वह स्वयं भी दूध व दही द्वारा मानव का पोषण करती है। आयुर्वेद में गाय से प्राप्त पंचगव्य तथा गोरोचन के कोटिश: उपयोग निर्दिष्ट हैं। जन्म देने वाली माता तो कुछ ही महीने बच्चे को दूध पिलाती है, फिर भी कहते हैं, कि मां के दूध का कर्ज कभी अदा नहीं किया जा सकता, लेकिन गाय तो जीवन भर दूध पिलाती है, गोषडंग से स्वास्थ्य प्रदान करती है, इसलिए इसको विश्व की माता कहा गया है।

परोपकारिणी होने के कारण श्रद्धा व भक्ति की यह देवी द्वार की शोभा व घर का गौरव मानी जाती है, तभी तो सन् 1857 ईस्वी में सैनिकों ने गाय की चर्बीयुक्त कारतूस के प्रयोग से मना कर दिया था और यहीं से शुरू हुई आजादी प्राप्त करने की जंग। इसके बाद कूका विद्रोह सहित सारा स्वतंत्रता आंदोलन गाय से प्रेरित रहा है। इस कारण गाय को भारत की आजादी की जननी कहा जाता है। इन्हीं की संतानों के पुरुषार्थ से मनुष्य सदा अर्थ संपन्न होता आया है। आर्थिक उन्नति से ही मनुष्य सुख-सुविधा पाता है और सुख-सुविधा से जीवन यापन करने को ही स्वर्ग कहा गया है। यदि जीवन के बाद के स्वर्ग की कल्पना को भी सत्य माने तो वह भी गाय के बिना संभव नहीं, क्योंकि स्वर्ग प्रदान करने वाले धर्मग्रंथ चाहे वेद हों या गीता, उनका आदि ज्ञान गाय की छत्र-छाया में ही प्राप्त हुआ है। आर्यों के यहां कोई भी धार्मिक कर्मकांड बिना यज्ञ के किया जाना संभव नहीं और यज्ञ कभी गौघृत और दधि के बिना संपन्न नहीं होते, इसलिए धर्मशास्त्र का पहला अध्याय व स्वर्ग की पहली सीढ़ी गाय ही है।

गोग्रास-दान का अनन्त फल


योऽग्रं भक्तं किंचिदप्राश्य दद्याद् गोभ्यो नित्यं गोव्रती सत्यवादी।
शान्तोऽलुब्धो गोसहस्रस्य पुण्यं संवत्सरेणाप्नुयात् सत्यशील:।।
यदेकभक्तमश्नीयाद् दद्यादेकं गवां च यत्।
दर्शवर्षाण्यनन्तानि गोव्रती गोऽनुकम्पक:।।

(महाभारत, अनुशा.73। 30-31)

जो गोसेवा का व्रत लेकर प्रतिदिन भोजन से पहले गौओं को गोग्रास अर्पण करता है तथा शान्त एवं निर्लोभ होकर सदा सत्य का पालन करता रहता है, वह सत्यशील पुरुष प्रतिवर्ष एक सहस्र गोदान करने के पुण्य का भागी होता है। जो गोसेवा का व्रत लेने वाला पुरुष गौओं पर दया करता और प्रतिदिन एक समय भोजन करके एक समय का अपना भोजन गौओं को दे देता है, इस प्रकार दस वर्षों तक गोसेवा में तत्पर रहने वाले पुरुष को अनन्त सुख प्राप्त होते हैं।


आवाहयाम्यहं देवीं गां त्वां गैलोक्यमातरम्।
यस्या: स्मरणमात्रेण र्स्वपापप्रणाशनम्।।
त्वं देवी त्वं जगन्माता त्वमेवासि वसुन्धरा।
गायत्री त्वं च सावित्री गंगा त्वं च सरस्वती।।
आगच्छ देवि कल्याणि शुभां पूजां गृहाण च।
वत्सेन सहितां त्वाहं देवीमावाहयाम्यहम्।।

भावार्थ: जिस गोमाता के मात्र स्मरण करने से सम्पूर्ण पापों का नाश हो जाता है, ऐसी तीनों लोकों की माता हे गो देवी ! मैं तुम्हारा आवाहन करता हूं। हे देवी तुम संसार की माता हो, तुम्हीं वसुन्धरा, गायत्री, सावित्री (गीता), गंगा और सरस्वती हो। हे कल्याणमयी देवी ! तुम आकर मेरी शुभ पूजा (सेवा) को ग्रहण करो। हे भारत माँ का गौरव बढ़ाने वाली बछड़े सहित देवस्वरूपा तुम्हारा मैं आवाहन करता हूँ।

बुधवार, 12 नवंबर 2014

गोरक्षार्थ धर्मयुद्ध सुत्रपात

गोरक्षार्थ धर्मयुद्ध सुत्रपात


धर्मप्राण भारत के हरदे सम्राट ब्रह्रालीन अन्न्त श्री स्वामी श्री करपात्री जी  महाराज द्वारा संवंत २00१ में संस्थापित अक्षिल भारतवासीय धर्मसंघ ने अपने जन्मकाल से ही मॉ भारतीय के प्रतीक गो रक्षा पालन पूजा एंव संर्वधन को अपने प्रमुखा उद्देश्यो में स्थान दिया था। सन २१४६ में देश में कांग्रेस की अंतरिम  सरकार बनी । भारतीय जनता ने अपनी सरकार से गोहत्या के कलंक  को देश के मस्तक से मिटाने की मांग की। किंतु  सत्ताधारी  नेताओं ने पूर्व घोषणाओ की उपेक्षा कर धर्मप्राण भारत की इस मांग  को ठुकरा दिया।

सरकार की इस उपेक्षावर्ती  से देश के गोभक्त नेता एवं जागरूक जनता चिन्तित हो उठी। उन्हे इससे गहरा  आघात लगा। सन` १९४६ के दिसम्बर मास में देश के प्रमुख नगर बंबई श्रीलक्ष्मीचण्डी-महायज॔ के साथ ही अखिल भारतीय धर्मसंघ   के तत्वाधान में आयोजित विराट गोरक्षा सम्मेलन मे स्वामी करपात्री जी  ने देश के धार्मिक सामाजिक एंव राजनैतिक नेताओं एंव धर्मप्राण जनता का आह्रान किया। देश के सवोच्च धर्मपीठो के जगदगुरू शंकराचार्य संत महात्मा विद्वान राजा-महाराजा एंव सद`गहस्थो ने देश के समक्ष उपस्थित इस समस्या पर गम्भीर विचार मंथन किया। और सम्मेलन  में सर्वसम्मत  घोषणा की गयी कि गयी " सरकार से यह सम्मेलन अनुरोध करता है कि देश के सर्वविध कल्याण को ध्यान में रखते हुए भारतीय धर्म और संस्कृति के प्रतीक गोवंश की हत्या कानून द्वारा प्रतिबन्ध लगा दे। कदाचित सरकार ने अक्षया त्रतीय   २३ तदनुसार २८ अप्रैल  १९९८ तक सम्मेलन के अनुरोध पर ध्यान नही दिया तो अखिल भारतीय धर्म संघ देश की राजधानी दिल्ली मे सम्पुर्ण गो हत्याबंदी के लिए अंहिसात्मक सत्याग्रह प्रारम्भ कर देगा। उक्त घोषणा के पश्चात्  शिष्ट मण्डलो गो रक्षा सम्मेलनो जन सभाओ हस्ताक्षर आन्दोलन एवं स्मरण पत्रों  द्वारा सरकार के कर्ण धारो को गोहत्या बंदी की मॉग का औचित्य एवं अनिर्वायता समझाने की भरसक चेष्टा  की गयी; किंतु सरकार के कानपर जू तक नही रेंगी।

हिन्दी लोकोक्तियों में गाय

हिन्दी लोकोक्तियों में गाय

भाषा और संस्कृति समाज का प्रतिबिम्ब है। इसके अध्ययन से सामाजिक संरचना का आभास लगाया जा सकता है। दरअसल, संस्कृति के विकास को ही भाषा दर्शाती है तथा इसके परिवर्तन को सही दिशा संस्कृति से मिलती है।

भिन्न-भिन्न प्रतीकों के माध्यम से संस्कृति के सभी तथ्यों को भाषा अपनी विशिष्ट शैली में अभिव्यक्त करती है। मुहावरे तथा लोकोक्तियां भाषा के वे स्वरूप हैं जो स्थानीय हावो-हवा से बनती है। भारतीय समाज में गाय को लेकर अत्यधिक आदर भाव है। उसके ऊपर अनेक लोकोक्तियां प्रचलित हैं। इससे गाय के प्रति भारतीय समाज में व्याप्त व्यापक दृष्टिकोण, एवं जीवन में गाय को सर्वाधिक महत्व देते हुए दिखाया गया है।

भारतीय भाषाओं में प्रचलित कई लोकोक्तियां गाय से जुड़ी है। इससे भारतीय समाज के गाय सम्बन्धी जीवन-दर्शन को समझा जा सकता है। हिन्दी भाषा में प्रचलित लोकोक्तियां निम्नलिखित है।

1. गाय कहां घोंचा घोंघियाय कहां- गाय कहीं और खड़ी है घोंचे (उसके दूहने के बर्तन) से आवाज किसी और जगह से आ रही है। कारण और परिणाम में असंगति होने पर ऐसा कहते हैं।

2. गाय का दूध् सो माय का दूध- गाय का दूध माता के दूध के समान होता है, अर्थात् गाय का दूध काफी लाभप्रद होता है।

3. गाय का धड़ जैसा आगे वैसा पीछे- पवित्रता के लिहाज से गाय का अगला तथा पिछला दोनों धड़ समान माना जाता है। कहावत का आशय यह है कि समदर्शी व्यक्ति को सभी श्रद्धा से देखते हैं।

4. गाय का बच्चा मर गया तो खलड़ा देख पेन्हाई- वियोग हो जाने पर बिछुडने वाले के चित्र आदि रूप देख कर भी तसल्ली होती है।

5. गाय की दो लात भली- सज्जन व्यक्तियों की दो चार बातें भी सहन करनी पड़ती हैं।

6. गाय की भैंस क्या लगे- अर्थात् कोई संबंध नहीं है। जब किसी का किसी से कोई संबंध न हो फिर भी वह उससे संबंध जोड़ना चाहे तो यह लोकोक्ति कहते हैं।

7. गाय के कीड़े निबटें, कौवा का पेट पले- कौआ आदि पक्षी, पशुओं के शरीर के कीड़े मकोड़े खाते रहते हैं। इससे पशुओं की कुछ हानि नहीं होती किंतु पक्षियों को भोजन मिल जाता है। यदि कोई छोटा आदमी किसी बड़े आदमी के सहारे जीवनयापन करे तो उसके प्रति ऐसा कहते हैं।

8. गाय के अपने सींग भारी नहीं होते- अपने परिवार के लोग किसी को बोझ नहीं मालूम पड़ते।

9. गाय गई साथ रस्सी भी ले गई- गाय तो हाथ से गई ही साथ में रस्सी उसके गले में बंधी थी वह भी ले गई। (क) जब कोई अपनी हानि के साथ-साथ दूसरों की भी हानि करता है, तब ऐसा कहते हैं। (ख) जब एक हानि के साथ ही दूसरी हानि भी हो जाए तो भी ऐसा कहा जाता है।

10. गाय चरावें रावत, दूध पिए बिलैया- गाय तो रावत चराते हैं और दूध् बिल्ली पीती है, अर्थात जब श्रम कोई और करे तथा उसका लाभ कोई और उठावे तब ऐसा कहते हैं।

11. गाय तरावे भैंस डुबावे-

(क) गाय की पूंछ पकड़ कर नदी या नाला पार करना पड़े वह पार ले जाती है किंतु भैंस पानी में प्रसन्न रहती है इस कारण वह बीच में ही रह जाती है और पार करने वाला डूब जाता है

(ख) भले लोगो की संगति मनुष्य का कल्याण हो जाता है और बुरे लोगों की संगति से हानि सहन करनी पडती है।

12. गाय न बाछी नींद आवे आछी- जिनके पास गाय, बछड़े या बछिया आदि नहीं होती उन्हें खूब नींद आती है, अर्थात निर्धन व्यक्ति निश्चित होकर सोता है।

13. गाय न्याणे की, बहू ठिकाने की- गाय वह अच्छी होती है जिसे न्याणो पर दूध् देने की आदत हो और बहू वह अच्छी होती है जो अच्छे खानदान की हो। (न्याणा-एक रस्सी जो दूध निकालते समय गाय के पिछले पैरों में बांधी जाती है)।

14. बांगर क मरद बांगर क बरद- बांगर (ऐसी भूमि जो नदी के कछार से बहुत दूर हो) के बैलो और किसानों को साल में एक दिन भी आराम नहीं मिलता। उन्हें सदा ही काम करना पड़ता है।

15. बैल तरकपस टूटी नाव, ये काहू दिन दे हैं दांव- टूटी हुई नाव तथा चौंकने वाले बैल का कभी विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये किसी भी समय धोखा दे सकते हैं।

16. बैन मुसहरा जो कोई ले राज भंग पल में कर दे, त्रिया बाल सब कुछ-कुछ गया, भीख मांगी के घर-घर खाये- जो लटकती डील वाले बैल को मोल लेता है उसका राज क्षण-भर में नष्ट हो जाता है। स्त्री, बाल-बच्चे छूट जाते हैं तथा घर भीख मांग कर खाने लगता है, अर्थात उपरोक्त ढंग के बैल अशुभकारी होते हैं।

17. बैल लीजे कजरा, दाम दीजै अगरा- काली आंखों वाले बैल को पेशगी दाम देकर खरीद लेना चाहिए। अर्थात इस तरह के बैल बहुत अच्छे होते हैं।

उपरोक्त लोकोक्तियों के द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय समाज के संस्कारों एवं उनके अनुभवों को भाषा के द्वारा गाय के माध्यम ये जनमानस को बांटने की कोशिश कि गयी है। गाय के लिए सम्मान एवं उसकी सुरक्षा भारतीय भाषाओं के भाषाई तत्वों द्वारा पूरी तरह स्पष्ट होती है।

हमारा देश फिर से सोने की चिड़िया बनकर चहचहा सके .

हमारा देश फिर से सोने की चिड़िया बनकर चहचहा सके .


"मैं गाय की पूजा करता हूँ | यदि समस्त संसार इसकी पूजा का विरोध करे तो भी मैं गाय को पुजूंगा-गाय जन्म देने वाली माँ से भी बड़ी है | हमारा मानना है की वह लाखों व्यक्तियों की माँ है "
- महात्मा गाँधी 


गौ मे ३३ करोड़ देवी-देवताओं का वास होता है , अतः गौ हमारे लिए पूजनीय है परन्तु क्या इन धार्मिक मान्यता  के आधार पर भी आज ही़नदुस्तान  में गौ को उसका समुचित स्थान मिल पाया है ? नहीं | 
अतः समय है आज के  (तथाकथित ) वैज्ञानिक एवं व्यापारिक युग में गौ  की उपयोगिता के उस पहलु पर भी विचार किया जाये तब शायद उसके ये मानस-पुत्र स्वर्थावास ही सही परन्तु उसकी हत्या करने के पाप से बच तो जायेंगे |
संपूर्ण जीवधारियो में गौ का एक अलग और महत्वपूर्ण स्थान है | यह स्थान ज्ञान और विज्ञान सम्मत है , ज्ञान और विज्ञान के पश्चात आध्यात्म तो उपस्थित हो ही जाता है | इस प्रकार ज्ञान , विज्ञान और आध्यात्म - इन तीन की बराबर रेखाओ के सम्मिलन से जो त्रिभुज बनता है ,उसे गाय कहते है | विद्वानों ने गाय को साक्षात् पृथ्वी-स्वरूपा बतलाया है| इस जगत के भार को जो समेटे हुए है और जगत के संपूर्ण गुणों की जो खान है उसका नाम गाय है |
हमारे पूर्वजो ने इस तथ्य को जान  लिया था और गौ सेवा को अपना धर्म बना लिया था जिसके फलस्वरुप हमारा देश "सोने की चिड़िया "बना हुआ था .....और कहा था
"सर्वे देवाः स्थिता: देहे , सर्वदेवमयी हि गौ: |"
परन्तु हम इसे भूल गए | यह भारत के अध:पतन की पराकास्ठा है की स्वतंत्रता मिलने के पश्चात भी यह नित्य-वन्दनीय गौ मांस का व्यापार फल=फूल रहा है | गौमांस का आतंरिक उपभोग बढ़ रहा है , बीफ खाना आज आधुनिकता की पहचान बन गया है | कत्लखानो का आधुनिकरण किया जा रहा है , रोज नये कत्लखाने खुल रहे है | ऐसा प्रतीत होता है स्वयं कलियुग ने गो वंश के विनाश का बीड़ा उठा लिया हो | अंग्रेजो ने "गोचरों " को हड़पने के लिए जो घिनौना खेल खेला था हम आज भी उसी मे फंसे हुए है |
आधुनिक अर्थशास्त्र ने भी हिन्दुस्थान के गौवंश के विनाश मे परोक्ष रूपा से सहयोग दिया | डॉ. राव , मुखर्जी , नानालती और अन्जारिया के विचारो को फैलाया गया जिन्होंने कहा था-" भारत पर गौवंश एक बोझ है , 70 % भारतीय गाय दूध नही देती , कृषि के लिए बैल अनुपयुक्त है " जो की सरासर एक सफ़ेद झूठ है" जबकि भारतीय अर्थशास्त्रियों मसलन डॉ. राईट के अनुसार 1940 के दशक के रूपये के अनुसार सिर्फ गाय और बैलो से प्राप्त दूध, दूध से बने पदार्थ, हड्डियाँ एवं चमड़ा , बैल-श्रम तथा खाद के माध्यम से एक हजार दस (1010 ) करोड़ के मूल्य की प्राप्ति होती है |एक सोची समझी साजिश ही प्रतीत होती है जो भारतीय गौवंश का विनाश के लिए तैयार की गयी है....मसलन यह के कृषकों को यह कहना की यह की गाये सर्फ 600 पौंड दूध ही देती है अतः विदेशी एवं संकर गाय जो 5000पौंड दूध देती है के बिना उनका जीवन नही चल पायेगा जबकि सेना एवं अन्य जगहों पर से आये औसत कुछ और ही बयां करता है.....भारतीय गायों के प्रजातियों के अनुसार यह 6000 -10000 पौंड तक का पाया गया |
अतः एक बात तो स्पष्ट है.."आधुनिक एवं अंग्रेज विद्वानों ने बड़े ही सुनियोजित तरीके से भारतीय गौवंश को कत्लखाने की तरफ धकेलने का प्रयास किया " आज स्थिति यह है की अत्यंत उपयोगी एवं युवा गौवंश को कत्लखानो मे भेजा जा रहा है | आचार्य विनोबा भावे ने तो इस गौवंश के प्राण रक्षा के लिए अपने ही प्राण उत्सर्ग कर दिए |परन्तु विडम्बना है की उनके बलिदान की किसी ने भी सुध नही ली| 

गौ वंश की वैज्ञानिक , व्यापारिक एवं पर्यावरण के दृष्टिकोण से उपयोगिता 

गाय के दूध की उपयोगिता से भला कौन परिचित नही है , इसकी उपोगिता को देखते हुए इसे सर्वोत्तम आहार कहा गया और इसकी तुलना अमृत से की गयी | गाय के दूध मे इसे अनेक विशेषता है जो किसी और दूध मे नही ...यह स्वर्ण से प्रचुर होता है...जिसके कारण इसके दूध का रंग पीला होता है , केवल गाय के दूध मे ही विटामिन "ए" होता है और अपनी अन्य खूबियों की वजह से यह शरीर मे उत्पन्न विष को समाप्त कर सकता है , एवं कर्क रोग (कैंसर ) की कोशिकाओ को भी समाप्त करता है 
गाय के घी से हवन मे आहुति देने से वातावरण के कीटाणु समाप्त हो जाते है 
गाय के गोबर को जलाने से एक स्थान विशेष का तापमान कभी एक सीमा से उपर नही जा पता, भोजन के पोषक तत्त्व समाप्त नही हो पाते और धुंए से हवा के विषाणु समाप्त हो जाते है |गाय के गोबर से बने खाद मे nitrogen 0 .5-1 .5 % , phosphorous 0 .5 -0 .9 % और potassium 1 .2 -1 .4 % होता है जो रासायनिक खाद के बराबर है ....और जरा भी जहरीला प्रभाव नही डालता फसलों पर | यह प्रभावशाली प्रदूषण नियंत्रक है , गाय के गोबर से सौर-विकिरण का प्रभाव भी समाप्त किया जा सकता है |"गोबर पिरामिड " से बड़ी मात्रा मे सौर उर्जा का अवशोषण संभव है | 
तालाबों मे गाय का गोबर डालने से पानी का अम्लीय प्रभाव समाप्त हो जाता है , गोबर के छिडकाव से कूड़े की बदबू समाप्त हो जाती है | लाखों वर्षों तक गोबर के खाद के प्रयोग से भारती की उर्वरा समाप्त नही हुई किन्तु अभी 60 -७० वर्षो मे रासायनिक खादों के प्रयोग से लाखों hectare भूमि बंजर हो गयी 
आज भी हिरोशिमा और नागाशाकी के निवासी परमाणु विकिरणों से सुरक्षा के लिए गोरस से भिगो कर रात्रि मे कम्बल पहनते है 
गोमूत्र में नीम की पत्तियों का रस डाल कर एक बेहद असरदार और हानिरहित जैव-कीटनाशक का निर्माण होता है जो पौधों की वृद्धि , कीटनाशक , फफूंद नियंत्रक एवं रोग नियंत्रक का कार्य करता है | यह पर्यावरण की पूरी श्रृंखला शुद्ध करता है 
गोमूत्र का अर्क फ्लू , गठिया , रासायनिक कुप्रभाव , लेप्रोसी , hapatitis , स्तन कैंसर , गैस , ulcer , ह्रदय रोग , अस्थमा के रोकथाम मे सर्वथा उपयोगी है यह बालो के लिए conditioner का कार्य भी करता है 
प्रति वर्ष पशुधन से 70 लाख टन पेट्रोलियम की बचत होती है | 60 अरब रुपये का दूध प्राप्त होता है , 30 अरब रुपये की जैविक खाद प्राप्त होती है , 20 करोड़ रुपये की रसोई गैस प्राप्त होती है .....यह आंकड़े खुद बा खुद यह बयां करते है की गो माता राष्ट्रीय आय मे वृद्धि का ईश्वर प्रद्दत श्रोत है
आठो ऐश्वर्य लेकर देवी लक्ष्मी गाय के शरीर मे निवास करती है |- इस कथन का गूढ़ार्थ राष्ट्र लक्ष्मी की और संकेत करता है जो हम उपर देख चुके है तो क्या अब ये हमारा दायित्व नही बनता है की हम पुनः गौ माता को उनका स्थान प्रदान करे ताकि हमारा देश फिर से सोने की चिड़िया बनकर चहचहा सके .............

"कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का दारोमदार गोवंश पर निर्भर है | जो लोग यंत्रीकृत फार्मों के और तथाकथित वैज्ञानिक तकनीकियो के सपने देखते है , वे अवास्तविक संसार मे रहते है "
-लोकनायक जयप्रकाश नारायण 

कारतूस पश्चिम का निशाना भारतीय गौ

कारतूस पश्चिम का निशाना भारतीय गौ

वेद वाक्य है, ‘गाव उपवताक्तं महीयस्य रसुदा। उमा कर्णा हिरण्यया॥’ ऋ.वे. 8-72-12 अर्थात जहां गौएं पुष्ट होती हैं, वहां की भूमि जलमय यज्ञ भूमि होती है और वहां के लोग स्वर्ण आभूषणो से सुशोभित होते हैं। (वे भुखमरी से आत्महत्या नहीं करते।) अथर्ववेद में आगे वर्णन है ‘इन्द्रेण दत्ता प्रथमा शतौदना’ अर्थात वे गाएं जो सौ मनुष्यों का भरण पोषण करती हैं।

वर्तमान भारत में तो अब शतौदना गायों की स्मृति तक नहीं रही है। लोग भूल चुके हैं कि प्राचीनकाल में भारत की समृद्धि का मूल आधार यहां की गाएं ही थीं। मैकाले की अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ने हमारे शिक्षित वर्ग को यह विश्वास दिला दिया है कि हमारे देश के पिछड़ेपन और उसकी दरिद्रता का मूल कारण हमारी प्राचीन परम्परा और उसमें आस्था ही है। यदि देश को उन्नत बनाना है तो पूरी तरह पाश्चात्य ज्ञान और तौर-तरीकों को यहां कार्यान्वित करना होगा, ऐसा उनका दृढ़ विश्वास है। सभी क्षेत्रों में सुधार का ज्ञान पाने के लिए हमारे तथाकथित विद्वान पाश्चात्य देशों में जाने के ‘सुअवसर’ को अपने जीवन का लक्ष्य मानने लगे हैं।

पूरे देश को पाश्चात्य रूप-रंग में ढालने की योजना से भला हमारी गौमाता कैसे वंचित रह सकती थी? हमारे नीति निर्धारकों ने दूध की मात्रा को गौमाता की उपयोगिता का मापदंड बना दिया। भारतीय संस्कृति का इससे बड़ा अपमान क्या हो सकता था। हमने अपनी कमियों को सुधारने की बजाय अपनी गौमाता पर ही कम दूध देने का लांछन लगा दिया। इतिहास गवाह है कि भारत वर्ष में जब तक गौ वास्तव में माता जैसा व्यवहार पाती थी – उसके रख-रखाव, आवास, आहार की उचित व्यवस्था थी, देश में कभी भी दूध का अभाव नहीं रहा।

दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए हमने अपनी गौमाता की नस्ल बदलने की ठान ली। और इसके लिए कृत्रिम गर्भाधान का रास्ता अपनाया। पश्चिम की नकल करने के पहले हम यह भूल गए कि वहां गायों को दूध के साथ-साथ मांस के लिए भी पाला जाता है। वहां कम से कम समय में कम से कम खर्चे पर अधिक से अधिक दूध और मांस उत्पादन के लिए कृत्रिम गर्भाधान को सबसे कारगर माना गया। सन 1931 में रूस में सबसे पहले बड़े स्तर पर कृत्रिम गर्भाधान की योजना बनाई गई। आज लगभग सभी पाश्चात्य देशों में कृत्रिम गर्भाधान का रिवाज है।

कृत्रिम गर्भाधान के लिए वृषभ का वीर्य कृत्रिम योनि में स्खलित करवा कर एकत्रित किया जाता है। यह प्रतिदिन दो-तीन बार करते हैं। हर स्खलन में सात आठ मिलीलीटर तरल पदार्थ मिलता है जिसमें पांच सौ करोड़ तक शुक्राणु होने की सम्भावना होती है। हालांकि स्वस्थ शुक्राणुओं की संख्या स्खलन की पुनरावृत्ति के साथ वृषभ के स्वास्थ्य, आहार, आयु आदि पर निर्भर रहती है। कृत्रिम रूप से एकत्रित वीर्य को पैनीसिलीन जैसी रोग नाशक औषधियों के साथ नमक के पानी में मिलाकर सौ-दो सौ गुना विस्तार किया जाता है और इस प्रकार एक स्खलन से लगभग दो सौ तक गर्भाधान टीके बनाए जाते हैं। इन्हीं टीकों का इस्तेमाल कृत्रिम गर्भाधान के लिए किया जाता है।

भारतीय संदर्भ में गायों का कृत्रिम गर्भाधान न केवल अनैतिक है बल्कि यह अव्यावहारिक भी है। सरकारी संस्थानों में चारा घोटाला, कार्र्यकत्ताओं की लापरवाही एक सामान्य बात है। इसलिए सरकारी संस्थानों में उत्पादित गर्भाधान टीके प्राय: शुक्राणु शून्य नमकीन पानी का घोल मात्र ही रहते हैं। आंकड़ों के खेल में हर सरकारी संस्थान निर्धारित टीकों का उत्पादन जरूर दिखाता है, भले ही वे टीके बेकार हों। इन टीकों को तरल नाइट्रोजन और रेफ्रीजरेटर में 40-50 डिग्री हिमांक से नीचे ठंडा रखा जाता है। टीका बनाने से लेकर गर्भाधान केन्द्र तक कब, कहां, कितनी बिजली, तरल नाइट्रोजन की उपलब्धता रही और इस कारण कितने शुक्राणु जीवित रह पाए, यह हमेशा एक संदिग्ध विषय रहता है। शासन तंत्र की मिलीभगत के चलते सरकारी संस्थानों में प्राय: मृतप्राय: शुक्राणुओं के टीके ही पाए जाते हैं। कृत्रिम गर्भाधान करने के लिए कुशल व संवेदनशील कर्मचारी भी चाहिए। सरकारी तंत्र में यह भी एक जटिल समस्या है। सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में कृत्रिम गर्भाधान योजना की यह कठिनाइयां हैं।

एक गौ का ऋतुकाल उसकी नस्ल, स्वास्थ्य, आहार व रख-रखाव पर निर्भर रहता है। देसी गाय एक दो दिन तक गर्म रहती है। अधिक दूध देने वाली संकर गायों का ऋतुकाल कुछ घंटों तक सिमित होता है। गाय कब गर्म है, इसका निर्णय करना प्राकृतिक नियमानुसार एक वृषभ का काम है। मनुष्य गोपालक गाय के ऋतुकाल का अनुमान ही लगा पाते हैं। देसी गाय में एक दो दिन के समय के कारण इतनी कठिनाई नहीं आती, जितनी अधिक दूध देने वाली संकर नस्ल की गायों में, जो केवल कुछ घंटों तक ही गर्म रहती हैं। इतने सीमित समय में कृत्रिम गर्भाधान व्यवस्था उपलब्ध कराना सामान्यत: कठिन होता है।

पाश्चात्य देशों में औसतन पचास प्रतिशत तक कृत्रिम गर्भाधान सफल माने जाते हैं। लेकिन यह देखा जा रहा है कि जिन गायों का कृत्रिम गर्भाधान किया गया उन में हर ब्यांत के बाद कृत्रिम गर्भाधान की सफलता कम होती जाती है। इसलिए प्राय: दो-तीन ब्यांत के बाद वहां गायों को मांस के लिए मार दिया जाता है।

भारत वर्ष में गौ के ऋतुमति होने के समय की ठीक पहचान की कमी, टीमों की प्रामाणिकता का अभाव, बिजली इत्यादि की अव्यवस्था, कुशल गर्भाधानरकत्ताओं की कमी इत्यादि के चलते, राष्ट्रीय योजना आयोग के आंकड़ों के अनुसार मात्र 30 प्रतिशत कृत्रिम गर्भाधान सफल होते हैं। परंतु वास्तविकता यह है कि भारत में कृत्रिम गर्भाधान की सफलता 20 प्रतिशत से अधिक नहीं है। कृत्रिम गर्भाधान की जितनी अधिक कोशिश की जाती है, गायों में बांझपन की संभावना उतनी ही बढ़ जाती है।

बिना दूध की गौ का सूखा काल बढ़ने से किसान के लिए गौ आहार देना एक आर्थिक बोझ बन जाता है। सरकारी संस्थानों में उत्पादित गर्भाधान टीकों की प्रामाणिकता कम पाए जाने पर विदेशों से टीके आयात करने का रास्ता ढूंढा गया है। जबकि इससे विदेशों के पशुओं की आनुवांशिक भयानक बीमारियों के यहां फैलने का खतरा बढ़ जाता है। अनुचित लाभ कमाने के लालच से प्रेरित होकर यह भी देखा गया है कि कई बार अधिकारियों की मिलीभगत से विदेशों में बेकार घोषित किए जा चुके टीकों का भी आयात कर लिया जाता है। यह सब देखते हुए अब कृत्रिम गर्भाधान का दायित्व निजी क्षेत्र को दिए जाने की बात हो रही है। लेकिन ऐसा हुआ तो भी स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं होने वाला है।

कृत्रिम गर्भाधान न केवल अप्रभावी एवं नुकसानदेह है बल्कि यह अत्यधिक खर्चीला भी है। सरकारी नीति के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में जहां 1000 तक गायें हो, वहां एक कृत्रिम गर्भाधान केन्द्र स्थापित करने की योजना है। प्रत्येक केन्द्र पर एक प्रशिक्षित कर्मचारी को आवास, यातायात के लिए मोटर साईकल, गर्भाधान टीके के भंडारण हेतु रेफ्रिजरेटर, टीका लगाने के यंत्र और अन्य कई चीजों के लिए प्राय: एक वर्ष में दो लाख रूपए का खर्च आता है। निजी संस्थाओं या व्यक्तियों द्वारा परिचालित केन्द्रों को यह पैसा सरकार द्वारा दिए जाने की व्यवस्था की जा रही है।

एक केंद्र का कर्मचारी मोटर साईकल पर तरल नाइट्रोजन के बर्तन में गर्भाधान टीके ग्रामवासियों के घर में उनकी गायों को उपलब्ध कराता है। साल में लगभग 250 दिन काम करके वह पांच सौ गायों का कृत्रिम गर्भाधान करने का प्रयास करता है। 30 प्रतिशत गर्भाधान की सफलता संतोषजनक मानी जाती है। यानी 500 में से मात्र 150 गाएं ही गर्भवती हो पाती हैं। बात यहीं खत्म नहीं होती। कृत्रिम गर्भाधान से जन्म लेने वाले लगभग 15-20 प्रतिशत बच्चे जल्दी ही मर जाते हैं। इस प्रकार दो लाख रूपए प्रति वर्ष खर्चे से सौ सवा सौ बच्चे ही मिल पाते हैं। 30 प्रतिशत सफलता के परिणाम स्वरूप हर गाय का सूखा काल दो-तीन महीने बढ़ जाता है। गरीब ग्राम वासी पर यह भी एक बोझ बनता है। फिर जो गाय हर बार, हर ब्यांत के लिए चार-पांच बार कृत्रिम गर्भाधान कराती है, उसका शरीर शिथिल हो जाता है और वह तीन-चार से अधिक बच्चे देने में असमर्थ हो जाती है। इसके बाद अधिकतर गायों को या तो कसाइयों को बेच दिया जाता है या उन्हें सड़कों पर छोड़ दिया जाता है, जहां वे असमय मर जाती हैं।

कृत्रिम गर्भाधान की इस अव्यावहारिक एवं अनैतिक व्यवस्था को छोड़ यदि सरकार प्राकृतिक गर्भाधान की व्यवस्था करे तो स्थिति में व्यापक सुधार हो सकता है। एक वृषभ से वर्ष में पचास से सत्तर बच्चे उत्पन्न हो सकते हैं। एक वृषभ के रखरखाव की अच्छी व्यवस्था करने में तीस-चालीस हजार रुपए का खर्चा आता है। दो लाख रूपए के खर्च पर पांच-छ: वृषभ 350 से 400 तक स्वस्थ बच्चे प्रदान कर सकते हैं। गाएं असमय बांझ नहीं होंगी। ठीक रख रखाव होने पर हर गाय आठ-दस बच्चे आसानी से देगी।

देश में स्वतन्त्रता से पूर्व हर 1000 भारतीयों पर 700 गायें थीं जो आज घटकर 100 रह गई हैं। अगर हम ऐसे ही चलते रहे तो हमें चाय पीने तक के लिए विदेशों से दूध आयात करना पड़ेगा, जैसा बांग्लादेश कर रहा है और पाकिस्तान भी उसी राह पर है। यह सब पाश्चात्य डेयरी उद्योग की सुनियोजित योजना के चलते हो रहा है। इसके लिए हमारे शासक वर्ग की अदूरदर्शिता और हमारे धर्माचार्यों की उदासीनता को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।

आज आवश्यकता है कि देश की प्रत्येक गौशाला देश के कोने-कोने में भारतीय नस्ल के स्वस्थ वृषभ किसानों एवं सरकारी एजेंसियों को उपलब्ध कराए। हर ग्रामीण क्षेत्र में, हर मंदिर-देवालय में एक अच्छे वृषभ को रखने का अपना दायित्व निभाना हमारे धर्माचार्यों और गौशाला चलाने वालों का ध्येय बनाना चाहिए। तरफणों के लिए उन्नत पशुपालन एवं जैविक कृषि की शिक्षा का प्रबंध अनिवार्य रूप से होना चाहिए। अगर ऐसा किया गया तो किसानों को आत्महत्या नहीं करनी पड़ेगी। गौ ग्राम नहीं बचा तो ‘शाइनिंग इंडिया’ भी नहीं बचेगी और एक बार फिर हमें गुलामी का दंश भोगने के लिए मजबूर होना होगा।

-सुबोध कुमार

(लेखक मूलत: इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हैं और महर्षि दयानंद गोसंवर्धन केन्द्र, पटपड़गंज, दिल्ली के प्रबंधन में सक्रिय रूप से जुड़े हैं)

विश्व में सर्वश्रेष्ठ है भारतीय गोवंश

विश्व में सर्वश्रेष्ठ है भारतीय गोवंश

प्रागैतिहासिक भूविज्ञान के विद्वान हमें अवगत करा चुके हैं कि हमारी पृथ्वी में जीवनस्वरूपों के उद्भव व विकास क्रम के अंतर्गत गोवंश के आदिकालीन पूर्वज ‘औरक्स’ की जन्मस्थली (18 लाख वर्ष पूर्व) भारत है, जहां उसके प्रथम प्रतिनिधि ‘बास प्लैनिफ्रन्स’ ने 15 लाख वर्ष पूर्व अपना पहला कदम रखा था।

भारत में प्रारंभ हुई अपनी विकास यात्रा के दौरान अफ्रीका व यूरोप में फैल कर स्थापित होने में इसे 2-3 लाख वर्षों का समय लगा। इस लम्बी यात्रा के दौरान, अपने सुरक्षित विकास के लिए, इस जीव को भी प्रकृति द्वारा स्थापित विधान, ”एक विशिष्ट पर्यावरण परिवेश में योग्यतम की उत्तरजीविता और उनका समूल नाश, जो अपने चारों और फैले साधनों का सदुपयोग नहीं कर पाते हैं”, का अनुसरण करना पड़ा था। इस प्राकृतिक नियम के अंतर्गत यह पशु, इस यात्रा-पथ के स्थानीय पर्यावरण (विशिष्ट जलवायु और उपलब्ध खान-पान में भिन्नता) के अनुरूप अपने को ढालते रहने के क्रम में, अफ्रीका व यूरोप पहुंचने तक सर्वथा नवीन भौतिक स्वरूप धारण कर चुका था। अब केवल, उसकी आकृति भारतीय गोधन से मिलती जुलती रह गई थी। हालांकि स्तनपायी जीव होने के कारण यह दूध उत्पादन में सक्षम था।

आकृति की बात करें, तो हम पाते हैं कि भारत में नील गाय नामक पशु पाया जाता है, जो देखने में हमारी गाय के समान है। परंतु वैज्ञानिक विवेचना से ज्ञात होता है कि इसका गोवंश से कोई संबंध नहीं है और उसके पूर्वज हिरण कुल के हैं। यह है प्रकृति की माया, जिसके प्रभाव में विभिन्न-जीव बदलते पर्यावरण के समकक्ष स्वरूप धारण करने के प्रयास में, जटिल रूप धारण करते रहे हैं। आधुनिक मानव के विकास का इतिहास भी ऐसा ही है।

परंतु अफ्रीका व यूरोप में स्थापित होने के काल तक विश्व के अन्य महाद्वीपों (उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका, आस्ट्रेलिया) में गोधन का अस्तित्व ही नहीं था। 19वीं सदी में यूरोपवासी अपने अतिक्रमण अभियानों के दौरान अपना गोधन लेकर वहां पहुंचे थे। तभी से गोधन वहां उपलब्ध हो सका।

कालांतर में जलवायु, पर्यावरण एवं पशुपालन विधियों में भिन्नता होने के कारण विभिन्न गौ-प्रजातियों के गुणों में भारी अंतर स्थापित हो चुका है, विशेषकर भारतीय व विदेशी गोधन के मध्य। दूध देने के साथ-साथ भारतीय गौ-प्रजातियों में ऐसे असंख्य गुण हैं जिनकी विदेशी प्रजातियों में कल्पना भी नहीं की जा सकती। वास्तविकता यह है कि आधुनिक जर्सी/आस्ट्रियन/फ्रिजियन/होलस्टीन आदि विदेशी-काऊ प्रजातियां, मानव द्वारा विकसित जिनेटिकली इंजीनियर्ड परिवार की सदस्य हैं, जिन्हे अधिक दूध व मांस उत्पादन के लिए विकसित किया गया है। विश्व के शीतोष्ण प्रदेशों में इनका विकास हुआ है। इसलिए ये गर्मी सहन नहीं कर सकती हैं। उन्हें ठंडा वातावरण ही भाता है। उनका खान-पान व रख-रखाव का तरीका भी भिन्न है। इनमें रोग-निरोधक शक्ति का भी अभाव है। इनका रूप व आदतें सिद्ध करती हैं कि हल व बैलगाड़ी चलाने में इनकी उपयोगिता नहीं है और इनके पंचगव्य में भारतीय गोधन के समान उच्चस्तरीय जैव-प्रजनन व उपचार गुण भी नहीं है।

इसके विपरीत भारतीय गोधन अपनी जन्मस्थली के जैव-समृद्ध प्रदेशों में लाखों वर्षों से जीवन-यापन करते हुए विकासरत रहा है। गर्मी के मौसम में कितनी भी कड़कती धूप क्यों न हो, वह मुंह नीचा कर छोटे पेड़ों-झाड़ियों की छांव में भी शान्त खड़ा व बैठा रहता है। कारण-उसमें भारतीय जलवायु अनुरूप व्यवहार प्राकृतिक रूप से उसमें समाहित हो चुके हैं। भारतीय गोधन, एक जैव-समृद्ध देश में विकासरत रहने के दौरान, आरंभ से ही जंगलों व चट्टानी इलाकों में नाना प्रकार की जड़ी-बूटियां व काष्ठीय वनस्पतियां खाता आया है। फलस्वरूप उसके भौतिक स्वरूप व पंचगव्य में उच्चस्तरीय गुण प्राकृतिक रूप में स्थापित हैं।

आधुनिक विज्ञान भी इस निष्कर्ष पर पहुंचने लगा है कि स्थानीय जलवायु, मृदा रसायन व आहार इस प्रकार के अंतर स्थापित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए डीएनए परीक्षणों द्वारा कार्बन और नाइट्रोजन अनुपात निर्धारण कर वैज्ञानिक बताने लगे हैं कि सफेद गैंडा घास-पात और काला भारतीय गैंडा जड़ी-बूटी व काष्ठीय वनस्पति खाता आया है।

हमारे विद्वान पूर्वजों ने इस पृथ्वी में व्याप्त पारिस्थितिकीय-विधान का वैज्ञानिक अंतररहस्य ज्ञात कर सामाजिक व्यवस्था को निरंतर गतिशील बनाए रखने के लिए कई सरल-व्यवहार योग्य परंपराएं स्थापित की थीं। उद्देश्य था कि आगे आने वाली मानव पीढ़ियां भी उनके वैज्ञानिक ज्ञान का लाभ उठाते हुए स्वविकास की ओर कदम बढ़ाती रहें। इस प्रकार की वैज्ञानिक सोच के अंतर्गत, उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी होगी कि इस पृथ्वी में सकुशल जीवन यापन के लिए स्वच्छ हवा व पानी के साथ-साथ भोजन ग्रहण कर ऊर्जा प्राप्त करते रहना सभी जीवनस्वरूपों की नियति है। इसलिए उन्होंने, इन भौतिक अनिवार्यताओं को प्राकृतिक रूप में यथावत बनाए रखने को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान की थी। उनके द्वारा प्रतिपादित सभी आचरण, नियम-परंपराओं में यह वैज्ञानिक झलक स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है।

इस प्रकार के शोध कर्म के अंतर्गत जब उन्हें भारतीय गोवंश में प्राकृतिक रूप से समाए चमत्कारिक जैव-प्रजनन/उपचारिक गुणों का ज्ञान हुआ, तब उन्होंने इस जीव को ‘गोधन’ की संज्ञा प्रदान करते हुए उसे ‘गोमाता’ का प्रतिष्ठित आसन प्रदान कर, उसे ‘अघन्या’ (न मारने योग्य जीव) मानने की परंपरा स्थापित कर उसके स्थायी संरक्षण की सामाजिक व्यवस्था विकसित की।

इसके ऐतिहासिक दस्तावेज मिलते हैं कि भारत में मुगल शासन के दौरान गोहत्या निषेध एक सशक्त कानून के रूप में लागू था। इसका कारण है कि मुसलमान लोग मांसाहारी थे व उन्हें गोमांस खाने में भी कोई दुविधा नहीं थी। भारत में आकर बसने पर मुसलमानों को भारतीय कृषि समृद्धता में हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित गोधन आधारित प्रौद्योगिकी (जैव कृषि व औषध) का ज्ञान होने लगा और वे अपने आर्थिक विकास के लिए उसे गम्भीरता से अपनाने भी लगे। सभी मुगल शासक जान चुके थे कि भारतीय जलवायु के अंतर्गत गोवंश, आर्थिक समृद्धता प्रदान करने वाला सबसे सशक्त, स्वदेशी जैव-ऊर्जा स्रोत है, चाहे वह नागरिकों के स्वास्थ्य संरक्षण का प्रश्न हो, या भोजन के लिए अनिवार्य अन्न/फल/सब्जी उत्पादन वृध्दि की बात हो, अथवा नागरिकों की आर्थिक समृध्दता गतिमान रहने पर सरकार को नियमित राजस्व मिलते रहने का प्रश्न ही क्यों न हो।

इस प्रकार के ऐतिहासिक परिदृश्य में यह मानना न्याय-संगत प्रतीत होता है कि औरंगजेब के शासनकाल तक (मृत्यु 1707) भारत में गोमांस खाना बहुत सीमित था। इसके पश्चात भारत में मुगल बादशाहों की पकड़ कमजोर होती चली गई और इसका लाभ उठाते हुए यूरोप से व्यापार करने आए अंग्रेजों ने धीरे-धीरे कर हमारे देश में अपना शासन स्थापित कर लिया। भारत में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए अंग्रेजों ने बड़ी चतुराई से हिन्दुओं व मुसलमानों के मध्य स्थायी वैमनस्य निर्माण के लिए ‘भारतीय-गोधन’ को ब्रह्मास्त्र के रूप में उपयोग किया। उनके दुष्प्रचार के कारण गाय को मात्र हिन्दुओं का प्रतीक माना जाने लगा और वह राजनीति का मोहरा बन गई।

इतना ही नहीं, वर्ष 1835 में लार्ड मैकाले ने भारतीय शिक्षा क्षेत्र में अंग्रेजी भाषा को आगे बढ़ाया। इसके प्रभाव में हम भारतवासी अपनी संस्कृत-भाषा से विमुख होते चले गए, जो हमारे महान प्राचीन ग्रंथों की भाषा है। इस शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत हम भारतीवासी यह जानते ही नहीं कि हमारे स्वर्णिम प्राचीन इतिहास के पीछे हमारे पूर्वजों द्वारा उच्चस्तरीय वैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुरूप विकसित जैव-प्रौद्योगिकी का हाथ रहा है। ये सभी अनुभवजन्य व भारतीय जलवायु में कारगर व प्रमाणित विधियां हैं। जागृत विज्ञान आधारित होने के कारण हम इन्हें वर्तमान में भी अपनाकर विश्व में उभरते जैव-प्रौद्योगिकी युग में असाधारण आर्थिक लाभ कमा सकते हैं।

इसलिए हम भारतवासियों को यह समझना आवश्यक है कि हमारे देश में गोहत्या निषेध की परंपरा प्रकृति के आशीर्वाद से भारत में उपलब्ध, एक पर्यावरण संगत व आधारभूत जैव ऊर्जा स्रोत को सरंक्षण प्रदान करने के सामाजिक आचरण से उभरी आर्थिक व्यवस्था का आदर्श स्वरूप है। इसी विशिष्ट जीव के भौतिक स्वरूप और पंचगव्य (गोबर, गोमूत्र, दूध, दही, घी) में समाए जैव-समृद्ध गुणों की वैज्ञानिक व्याख्या व उस पर आधारित प्रौद्योगिकी विकास कर हमारे पूर्वजों ने भारत को ‘सोने की चिड़िया’ जैसी प्रतिष्ठा दिलवाई थी।

परंतु भारत में शासन करने के लिए अंग्रेजों द्वारा अपनाई गई कूटनीति से प्रभावित होकर भारतीय आचार-व्यवहार शनै: शनै: परिवर्तित होता चला गया। एक ओर भारतीय मुसलमानों ने निर्भय हो कर गोमांस सेवन करना आरंभ कर दिया, तो दूसरी ओर हम भारतवासियों ने गोवंश के रख-रखाव की ओर समुचित ध्यान देना छोड़ दिया। वर्तमान स्थिति यह है कि विदेशी काऊ के मुकाबले हमारी भारतीय गाय की दूध उत्पादन क्षमता बहुत कम हो गई है; इतनी कम कि आज भारत में स्वदेशी गोधन के पालन-पोषण को घाटे का सौदा समझा जाता है। इस सोच के प्रभाव में भारतीय योजनाविदों ने भारतीय नस्ल के गोधन को एक समस्या के रूप में ही पहचाना है व उसके सदुपयोग के विषय में सोचा ही नहीं, योजना बनाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

यद्यपि अधिकतर भारतीय गायों का दूध उत्पादन तुलनात्मक रूप से कम है, लेकिन उनके गोबर-गोमूत्र में आज भी उच्चस्तरीय जैव-प्रजनन/उपचारिक गुण प्राकृतिक रूप में समाए हुए हैं। अमेरिका जैसा समृद्ध देश भी अब भारतीय गोवंश के पंचगव्य में विद्यमान उत्कृष्ट जैविक-गुणों का महत्व समझते हुए, भारत से जैव-वर्मीकम्पोस्ट/ पेस्टिसाइड निर्यात के विषय में गंभीरता से सोचने लगा है।

पिछले दो दशकों से कई भारतीय स्वयंसेवी संस्थाओं ने जैव-कृषि क्षेत्र में प्राचीन भारतीय पद्धतियों को व्यावहारिक रूप में अपनाकर, सफल आर्थिक प्रदर्शन आरंभ कर दिया है। इन प्रयासों से एक व्यावहारिक मान्यता उभरी है कि भारतीय जलवायु के अंतर्गत एक स्वदेशी गोधन का गोबर-गोमूत्र एक हेक्टेयर भूमि में कृषि के लिए पर्याप्त है। दूसरी ओर यह मान्यता पुन: स्थापित हुई है कि एक बंजर-भूमि को गोपालन द्वारा 2/3 वर्षों में उपजाऊ बनाया जा सकता है। इस प्रकार विवेचना से ज्ञात होता है कि भारत में कुल कृषि योग्य भूमि 14.2 करोड़ हेक्टेयर है और गोधन की संख्या 19.8 करोड़ है अर्थात भारतीय कृषि भूमि की जैव-खाद/कीटनाशक आवश्यकता से कहीं अधिक गोधन हमारे पास है। इस क्षमता का सदुपयोग कर, भारत न केवल अपने यहां कृषि को एक नई ऊंचाई दे सकता है बल्कि निर्यात द्वारा विश्व में उभरते जैव-प्रौद्योगिकी व्यापार में प्रमुख भूमिका भी निभा सकता है।

इसके अलावा, अब तो भारत में पंचगव्य के उपयोग से फिनायल, अन्न सुरक्षा टिकिया, मच्छर निरोधक क्वायल, बर्तन मांजने का पाउडर, डिस्टेम्पर, फेस पैक (उबटन), साबुन, सैम्पू, तेल, धूप बत्ती, दंत मंजन आदि कई चीजों का निर्माण व्यावसायिक स्तर पर किया जा रहा है। जैव उत्पाद होने के कारण, इनकी मांग विदेशों में भी बढ़ने लगी है। इतना ही नहीं, स्वदेशी गोधन में विद्यमान भार-वहन क्षमता का उपयोग कर बैल-चालित ट्रैक्टर/सिंचाई व पंपिंग मशीन/बैट्री चार्जर जैसे उपयोगी यंत्रों का विकास भी भारत में हो चुका है और इन्हें व्यावहारिक रूप में सफलतापूर्वक उपयोग भी किया जा रहा है।

परंतु दुर्भाग्यवश हम आज भी अंग्रेजी सोच से ग्रसित हैं। इस मानसिकता के कारण, हमारे गोवंश में विद्यमान जनोपयोगी गुणों का प्रचार-प्रसार भारत में नहीं हो पाया है। इसलिए इस विषय के जानकार भारतीयों को राष्ट्र-धर्म के रूप में गोमाता के सदगुणों का प्रचार-प्रसार करना होगा, वह भी अपनी-अपनी मातृभाषा में, जैसाकि हमारे पूर्वजों ने किया था। इस विषय को प्रचार-प्रसार मिलने पर, भारत में सर्वत्र कुटीर उद्योग का जाल फैल जाएगा, क्योंकि भारत में 70 प्रतिशत गोधन के मालिक गरीब किसान हैं। भारतीय किसानों के मध्य इस प्रकार का ज्ञान, एक ऐसी हरित-क्रांति को जन्म देगा, जो सार्थक एवं टिकाऊ होगी।

-शिवेन्द्र कुमार पाण्डे
(लेखक एक भूवैज्ञानिक एवं कोल इंडिया लि. के सेवानिवृत्त मुख्य महाप्रबंधक (गवेषणा) हैं।)

गोवंश संवर्धन से बचेगी देश की संस्कृति

गाय को लेकर हमारे समाज में एक बड़ा विरोधाभास है। एक ओर हम गाय को माता का स्थान देते हैं। हमारी श्रद्धा हमारे प्रत्येक कर्म के साथ दिखाई पड़ती है। खाना प्रारम्भ करने से पहले गो-ग्रास निकाल कर अलग रख दिया जाता है।प्राचीन भारतीय परम्परा और गोमाता- 

गाय में 33 करोड़ देवताओं के वास की बात कही गयी है। गाय के दूध, दही, घी आदि से शरीर पुष्ट होता है। मूत्र में औषधीय गुण है। गोबर कृषि के लिए खाद देता है और इसी गोवंश के बैल से खेती होती है। इस प्रकार स्वावलम्बी जीवन यापन की पूरी श्रंखला गाय के साथ जुड़ी हुई है। भगवान कृष्ण के साथ गोपाल, गोविन्द नाम उनकी गायभक्ति के कारण जुड़ा हुआ है। भगवान राम के पूर्वज राजा दिलीप ने तो स्वयं वन में जाकर गाय की सेवा की है। वास्तव में गाय के गुणों के कारण ही उसे हमारी परम्परा में माता का स्थान दिया गया है। आज भी उस श्रद्धा के कारण हिन्दू समाज इसे पूज्यनीय मानता है।

लेकिन एक दूसरा चित्र भी है। आज भी हिन्दू समाज में वह परम्परागत श्रद्धा बनी हुई है। परन्तु योजनाबद्ध षड़यंत्र के कारण हमारी दिनचर्या, जीवनशैली में धीरे-धीरे ऐसा बदलाव कर दिया गया है कि हम धीरे धीरे उस माता से दूर हो गए है और आज भी दूर जा रहे है।

आधुनिक जीवनशैली और गोसेवा-
आज नगरों की ऐसी आवास-व्यवस्था बन गई है कि कोई चाह कर भी गाय नहीं रख सकता। बहुमंजिली इमारतों में व्यक्ति की सुख-सुविधाओं की हर छोटी-छोटी बात का ध्यान रखा जाता है। कारों के लिए अलग से गैरज का प्रबन्ध है परन्तु गाय पालना संभव नहीं है। महानगरों में तो यह बिल्कुल भी संभव नहीं है। कितनी ही आप के मन में श्रद्धा हो कि आप अपने हाथों से गाय की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त करें। यह आज के परिवेश में संभव नहीं है। 

जब आप गाय पालन कर ही नहीं सकते तो उसके गुणों की अनुभूति आपको कैसे होगी। कैसे आप जानेंगे कि उसके दूध में कैसी दैवीय शक्ति है। उसके दूध से कैसा स्वास्थ्य लाभ होता है, कितनी बुद्धि प्रखर होती है यह आप कैसे अनुभव कर पायेंगे। इस प्रकार धीरे-धीरे हमारे आवास का कल्चर बदल जाने के कारण हम गाय से दूर होते गए।

सामाजिक भ्रांतियां और गाय-
हमारी श्रद्धा को समाप्त करने के लिए शास्त्रों की व्याख्या में ऐसी शिक्षा दी गई कि वैदिक काल में भी हमारे पूर्वज गाय माँस खाते थें। सब से बड़ा अन्याय यही से प्रारम्भ हुआ। कुछ सूत्रों की व्याख्या को ऐसा तोड़ा मरोड़ा गया तथा उन्हें इतना महत्व दिया गया कि अन्य हजारों जगह जो गाय की स्तुति की गई उसकी उपेक्षा कर दी गई।गाय के प्रति श्रद्धा को कम करने का यह एक नियोजित शड़यंत्र था।

दूसरा भ्रम पैदा किया गया कि गाय और भैस के दूध की तूलना का। दूध की गुणवत्ता का पैमाना चिकनाई को प्रचारित किया गया। गाय का दूध पतला होता है और भैंस के दूध से घी, मावा, पनीर, अधिक मिलता है। इसलिए गाय के दूध की कीमत कम आंकी गई और भैंस का दूध मंहगा बिकने लगा। जबकि आज तो चिकनाई को मेडिकल की दृष्टि से शरीर के लिए हानिकारक माना जाने लगा है और दूध के स्थान पर टोन्ड मिल्क अर्थात चिकनाई रहित दूध का प्रचलन सरकारी, गैर-सरकारी डेरियों में होने लगा है।

यह लोग भूल गये कि गाय का दूध पीने से बुद्धि प्रखर होती हैं। शरीर में आलस्य और प्रमाद के स्थान पर चेतनता आती हैं। इसका स्पष्ट उदाहण गाय के बछडे और भैंस के पड़वे की चेतनता को देखकर लगाया जा सकता है। गाय के बछड़े को उछलते, कुलांचे भरते देखा जा सकता है जबकि भैंस का बच्चा एकदम मरियल सा सोया पड़ा रहता है। आज कई गोभक्त वैज्ञानिकों ने इस दृष्टि से अनुसंधान करके सिद्ध कर दिया है कि गाय का दूध ही मनुष्य के शारीरिक, बौद्धिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए अधिक उपयुक्त है।

गाय के दूध को भैंस के दूध की तूलना से कम मूल्य व कम शक्तिशाली बताने का भ्रम पैदा करके गाय को समाज से दूर करने का षड़यत्र रचा गया है। शहर में हर व्यक्ति अपनी गाय तो रख नहीं सकता। वह डेयरी में दूध लेने जाता है डेयरी वालों को भैंस पालने में लाभ होता है क्योंकि भैंस अधिक दूध देती है और भैंस का दूध चिकनाई के पैमाने के हिसाब से मंहगा बिकता है। इसलिए डेयरी वाला भैस ही पालता है। उसके पास दस भैंस है तो एक दो गाय है। क्योंकि गाय के दूध को केवल बीमार या छोटे बच्चों के लिए ही उपयुक्त माना जाता है और सामान्य उपयोग में भैंस के दूध को ही दूध बताया गया है। इस प्रकार भैस की स्पर्धा मे गाय के दूध को एक षडयन्त्र के नाते केवल चिकनाई को पैमाना बनाकर हीन बना दिया गया है।

उत्तर भारत में तो भैंस से स्पर्धा हुई परन्तु दक्षिण में और शेष भारत में गाय ही अधिक थी। गाय भैंस से दूध मे भले ही पिछड़ गई परन्तु गाय के बछड़े बैल बनकर अच्छे दाम पर बिक जाते हैं इसलिए गांव में गोपालन उत्तर भारत में कम दूध होने पर भी चालू रहा। बछड़ा ब्याहने पर गाय का मूल्य केवल बछड़े के कारण दुगना तक हो जाता था।

गोपालन और गांव का विकास-
गांव में गोपालन पर मार पड़ी ट्रैक्टर के आने से। ट्रैक्टर आ गए तो बैल अनुपयोगी दिखने लगे। बैल पालने और दिन रात उनके चारे के लिए प्रबन्ध करते रहो, इस झंझट से मुक्ति पाने के लिए बड़े किसानों ने अपने ट्रैक्टर खरीद लिए और छोटे किसान ट्रैक्टर वाले से किराये पर खेत जुतवाने लगे। इस ट्रैक्टर के आगमन ने गांव के पूरे कार्यचक्र को तोड़ दिया। गाय थी बैल थे तो गाँव में रोजगार था। बढ़ई लोहार, चर्मकार, चरवाहा सभी किसान के हल के साथ जुड़े हुए थे।

बढ़ई हल बनाता था, बैलगाड़ी बनाता था। लोहार हल के आगे का फल बनाता था, चर्मकार मरे हुए जानवरों के चमड़े से जूते बनाता था। चरवाहा जानवरों को पास के जंगल मे चराने के लिए ले जाता था। परन्तु अब तो किसान खुद ही बेकार हो गया है। खेती में अब तो केवल फसल बोते समय ही अधिक काम होता है और शेष समय तो घर-परिवार के लोग ही खाली हो गये। इस प्रकार गोवंश का गांव से निष्कासन होने के साथ-साथ जनता का भी गांव से शहर की ओर रोजगार के लिए पलायन शुरू हो गया है।

ट्रैक्टर की खेती से एक ओर तो बेरोजगारी फैली दूसरे पशुओं के न रहने से खाद की कमी महसूस की जाने लगी है। खाद के लिए सरकार ने यूरिया आदि रासायनिक खादों के उपयोग की सिफारिश की। शुरू मे रासायनिक खादों से जमीन की फसल मे आशातीत वृद्धि हुई। तत्कालिक लाभ ने पुराने सिस्टम को तोड़ने में सहायता दी।

गोपालन में कमी के दुष्परिणाम-
कुछ ही वर्षों बाद इसके दुष्परिणाम भी प्रारम्भ हुए। ट्रैक्टर की जुताई से ट्रैक्टर के पहिये के बोझ से जमीन में पलने वाले केचुआ आदि शनै: शनै: मरने लगे। उधर यूरिया आदि गरम खादों के कारण भी लाभकारी जीवाणु मरने लगे और रासायनिक खादों के कारण भी हानिकारक जीवाणु खेती की फसल को नुकसान पहुंचाने लगे। इससे फसल के पकने से पूर्व ही कीड़ा लग जाता है। इसे रोकने के लिए कीटनाशकों का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। फसल जैसे ही पकने के लिए तैयार हो, उस पर कीटनाशक का छिड़काव किया जाने लगा।

पहले खेत में गोबर की खाद पड़ती थी उसमें एक ओर तो धरती की उर्वराशक्ति कायम रहती थी। दूसरे उसमें प्राकृतिक रूप् से कीटों से बचाव की अदृभुत क्षमता थी। अब कीटनाशकों के प्रयोग से फसल को कीटों से तो बचाया गया परन्तु फसल के उत्पाद पर जो कीटनाशक रसायनों का प्रभाव हुआ वह अधिक नुकसानदायक साबित होने लगा।

आज उन उत्पादों- टमाटर, बैगन आदि को खाने वालों को उन रसायनों के दुष्प्रभाव से बचाना कठिन हो रहा है। आज से तीस चालिस वर्ष पूर्व किसी गांव में आपको शायद ही कोई रक्तचाप, हृदय रोग या कैंसर का रोगी मिल जाए। आज शहरों के साथ गांव में भी इस प्रकार की जानलेवा बीमारियों के रोगी मिल सकते हैं। विचारकों का कहना है यह खेती पर छिड़काव किए जाने वाले कीटनाशकों के जहर का प्रभाव है। मानव के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों तथा धरती की उर्वराशक्ति के निरन्तर कम होने के कारण अब समाज में आर्गेनिक खेती की मांग उठने लगी है। आर्गेनिक खेती अर्थात गोबर आदि प्राकृतिक खाद से होने वाली खेती, जिसमें रासायनिक खादें तथा कीटनाशकों का प्रयोग न किया गया हो।

इस प्रकार गाय के बिना खेती से किस प्रकार तबाही हो रही है, यह परिणाम ही बता रहे हैं। लाखों करोड़ की सबसिडी पहले सरकार रासायनिक खाद कम्पनियों को देती है उसके बाद भी किसान को खेती इतनी मंहगी हो गई है कि वह उससे भरपेट भोजन नहीं प्राप्त कर पाता। वह निरन्तर कर्ज के बोझ तले दबता जा रहा है। सरकार समय समय पर कर्ज माफ भी करती है परन्तु फिर भी उसे अपनी आर्थिक मजबूरियों के कारण आत्महत्या करनी पड़ती है। अब तो किसानों की आत्महत्या इतनी आम हो गयी है कि वह खबर भी नहीं बनती।

इस तरह एक गाय के कृषि चक्र से बाहर हो जाने पर न केवल धरती बंजर हो रही है। मानव के अस्तित्व को ही खतरा पैदा हो गया है, मानव के स्वास्थ्य और सुख शान्ति पर गंभीर संकट आ गया है।इसलिए आज पुन: गाय की महत्ता की बात लोगों को समझ में आने लगी है। गोग्राम यात्रा का इसीलिए गावों में अधिक स्वागत हो रहा है।

गाय की उपयोगिता आर्थिक दृष्टि से कम करने में जर्सी गाय ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जर्सी गाय अधिक दूध देती है, देसी गाय कम दूध देती है, इस तुलना में देसी गाय की अपेक्षा जर्सी गाय के दूध को व्यवसाय की दृष्टि से लाभप्रद बताया गया। इस कारण भी भारत की गाय को पालने में ग्वाले पीछे हट गये यद्यपि जर्सी गाय का बैल खेती के लिए उपयोगी नहीं होता। लेकिन डेरी फार्म का व्यवसाय करने वालों को देसी गाय की अपेक्षा जर्सी गाय अधिक प्रिय रहीं।

लेकिन आज वैज्ञानिक शोधों ने सिद्ध किया है कि स्वास्थ्य और औषधीय दृष्टि से जो तत्व देसी गाय के दूध में हैं उससे बहुत कम मात्रा में जर्सी गाय में है, इसलिए अब तो जर्सी गाय को भारत की गाय कहने में ही संकोच होता है। गो-मूत्र की दृष्टि से भी जर्सी उपयोगी नहीं ठहरती। गो-मूत्र में जो कैंसर तक को ठीक करने के औषधीय गुण है, वह जर्सी गाय के मूत्र में नहीं है।

गो ग्राम यात्रा और गाय की उपयोगिता-
जैसे ठोकर लगने पर ही व्यक्ति सीखता है। वैसे ही गाय की उपेक्षा से जो पूरे समाज का स्वस्थ्य-चक्र बिगड़ा उसने भी पुन: गाय की ओर लौटने के लिए समाज को प्रेरित किया है। ऐसे समय पर गो-ग्राम यात्रा ने समाज में व्याप्त कुण्ठा को समाप्त कर उसे पुन: गाय की ओर लौटने के लिए एक एक मंच प्रस्तुत किया है। यह यात्रा वास्तव में समाज में व्याप्त असमंजस की स्थिति से निकलने का एक मार्ग सुझाती है। जैसे स्वामी रामदेवजी का योग चार पांच वर्षों में प्रचारित हो गया उसका एक कारण यह भी है कि लोग ऐलोपैथी की दवाएं खाकर हताश और निराश हो चुके थे उन्हें रामदेवजी के योग में एक आशा की किरण दिखाई दी और लोग उनके पीछे एकजुट होने लगे। 

अब इसमें दो मत नहीं है कि गाय की उपयोगिता को जानकर लोग गोपालन में रुचि लेंगे। जितना अधिक प्रचार गाय की उपयोगिता को तर्क के साथ समझाने की कोशिश की जाएगी। उतना ही लोग गाय के प्रति उन्मुख होंगे। नगरों में गाय का दूध उपलब्ध हो इसकी व्यवस्था सरकारी या गैर-सरकारी स्तर पर की जानी चाहिए। यदि व्यवस्था हो और लोगों को गाय के दूध की उपयोगिता का सही ज्ञान कराया जाए तो लोग भैंस के दूध से अधिक दाम देकर गाय का दूध लेना चाहेंगे।

आज मुख्य प्रश्न दूध की उपलब्धता का है। गाय लोग घर पाल सकें इसके लिए गाय की मण्डी उपलब्ध हो जहां से गाय खरीदी जा सके। आज उत्साह में कोई गाय पालना भी चाहे तो उसे गाय मिलती नहीं। इन कामों की व्यवस्था की गई तो लोगों की गाय में रुचि उत्पन्न होने लगेगी। अन्यथा गो ग्राम यात्रा केवल आन्दोलन का रूप लेकर समाप्त हो जाएगी।

गाय और भैस के दूध की तूलना की प्रयोगशाला की रिपोर्टों को सार्वजनिक किया जाना चाहिये। देसी गाय और जर्सी गाय की गुणवत्ता के भी अन्तर को शोधों के आधार पर प्रचारित किया जाना चाहिए। गाँव की दृष्टि से आर्गेनिक खेती के लिए वातावरण बना है परन्तु जो किसान गोबर की खाद से खेती करे उसके कारण आरम्भ में भी कम उपज होगी उसकी भरपाई के लिए उसकी उपज के विक्रय की भी व्यवस्था होनी चाहिये।

यदि इस प्रकार के व्यावहारिक बिन्दुओं को सोचकर कदम उठाए जाएंगे तो गाय का दूध अपनी स्वयं की शक्ति से स्वत: ही समाज में अपना स्थान बना लेगा। गाय यदि उपयोगी हो जाएगी तो वह किसी भी कारण से कत्लखाने तक नहीं पहुँचेगी। गोमूत्र के ऊपर जो अनुसंधान हुए हैं उससे लोगों में गोमूत्र के बारे में उत्सुकता जागृत हो गयी है। अब गोमूत्र बिकने लगा है। यदि उसकी पूरी व्यवस्था हो जाय तो गोसदन एव गोशालाएं आत्मनिर्भंर हो जाएगी, उन्हें दान की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। गाय की उपयोगिता को तर्कों के आधार पर लोगों में प्रचारित किया जाए और उन्हें दूध प्राप्त करने के लिए व्यवहारिक सुविधा प्रदान की जाए। गाय स्वयं ही बच जाएगी। गौ के तेज में बहुत शक्ति है। वह समय आ गया है जब गाय अपना वर्चस्व प्रसारित करेगी और पुन: सच्चे अर्थों में माँ का स्थान प्राप्त कर लेगी।